[8]
अथ चूडाकर्मसंस्कारविधिं वक्ष्यामः
यह आठवाँ संस्कार ‘चूडाकर्म’ है, जिस को केशछेदन-संस्कार भी कहते हैं। इस में आश्वलायन गृह्यसूत्र का मत ऐसा है—
तृतीये वर्षे चौलम्॥1॥
उत्तरतोऽग्नेर्व्रीहियवमाषतिलानां शरावाणि निदधाति॥2॥
इसी प्रकार पारस्कर गृह्यसूत्रादि में भी है—
सांवत्सरिकस्य चूडाकरणम्॥
इसी प्रकार गोभिलीय गृह्यसूत्र का भी मत है॥
यह चूडाकर्म अर्थात् मुण्डन बालक के जन्म के तीसरे वर्ष वा एक वर्ष में करना। उत्तरायणकाल शुक्लपक्ष में जिस दिन आनन्दमङ्गल हो, उस दिन यह संस्कार करे।
विधि—आरम्भ में पृष्ठ 4-24 में लिखित विधि करके चार शरावे ले। एक में चावल, दूसरे में यव, तीसरे में उर्द और चौथे शरावे में तिल भरके वेदी के उत्तर में धर देवे। धरके पृष्ठ 20 में लिखे प्रमाणे "ओम् अदितेऽनुमन्यस्व" इत्यादि तीन मन्त्रों से कुण्ड के तीन बाजू, और पृष्ठ 20 में लिखे प्रमाणे ‘ओं देव सवितः प्रसुव॰’ इस मन्त्र से कुण्ड के चारों ओर जल छिटकाके, पूर्व पृष्ठ 19 में लिखित अग्न्याधान समिदाधान कर अग्नि को प्रदीप्त करके, जो समिधा प्रदीप्त हुई हो उस पर लक्ष्य देकर पृष्ठ 20-21 में लिखे प्रमाणे आघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 22-23 में लिखे प्रमाणे आठ आज्याहुति, सब मिलके 16 सोलह आहुति देके, पृष्ठ 21-22 में लिखे प्रमाणे "ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि॰" इत्यादि मन्त्रों से चार आज्याहुति प्रधान होम की देके, पश्चात् पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे स्विष्टकृत् मन्त्र से एक आहुति मिलके पाँच घृत की आहुति देवें।
इतनी क्रिया करके कर्मकर्त्ता परमात्मा का ध्यान करके नाई की ओर प्रथम देखके—
ओम् आयमगन्त्सविता क्षुरेणोष्णेन वाय उदकेनेहि।
आदित्या रुद्रा वसव उन्दन्तु सचेतसः सोमस्य राज्ञो वपत प्रचेतसः॥
—अथर्व॰ कां॰ 6। सू॰ 68॥
इस मन्त्र का जप करके, पिता बालक के पृष्ठ-भाग में बैठके किञ्चित् उष्ण और किञ्चित् ठण्डा जल दोनों पात्रों में लेके—
ओम् उष्णेन वाय उदकेनैधि॥
इस मन्त्र को बोलके दोनों पात्र का जल एक पात्र में मिला देवे।
पश्चात् थोड़ा जल, थोड़ा माखन अथवा दही की मलाई लेके—
ओम् अदितिः श्मश्रु वपत्वाप उन्दन्तु वर्चसा।
चिकित्सतु प्रजापतिर्दीर्घायुत्वाय चक्षसे ॥1॥
—अथर्व॰कां॰ 6। सू॰ 68॥
ओं सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तनूं
दीर्घायुत्वाय वर्चसे॥2॥
इन मन्त्रों को बोलके, बालक के शिर के बालों में तीन वार हाथ फेरके केशों को भिगोवे।तत्पश्चात् कङ्घा लेके केशों को सुधार के इकट्ठा करे, अर्थात् बिखरे न रहें। तत्पश्चात्—
ओम् ओषधे त्रायस्वैनम्॥1॥
इस मन्त्र को बोलके तीन दर्भ लेके दाहिनी बाजू के केशों के समूह को हाथ से दबाके—
ओं विष्णोर्दंष्ट्रोऽसि॥
इस मन्त्र से छुरे की ओर देखके—
ओं शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽ अस्तु मा मा हिंसीः॥
इस मन्त्र को बोलके छुरे को दहिने हाथ में लेवे। तत्पश्चात्—
ओं स्वधिते मैनं हिंसीः॥1॥
ओं निवर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥2॥
इन दो मन्त्रों को बोलके उस छुरे और उन कुशाओं को केशों के समीप ले जाके—
1—ओं येनावपत् सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्।
तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य गोमानश्ववानयमस्तु प्रजावान्॥
—अथर्व॰ का॰ 6। सू॰ 68॥
इस मन्त्र को बोलके कुशासहित उन केशों को काटे *
[*केशछेदन की रीति ऐसी है कि दर्भ और केश दोनों युक्ति से पकड़ कर अर्थात् दोनों ओर से पकड़के बीच में से केशों को छुरे से काटे। यदि छुरे के बदले कैंची से काटे तो भी ठीक है।]
और वे काटे हुए केश और दर्भ शमीवृक्ष के पत्रसहित, अर्थात् यहां शमीवृक्ष के पत्र भी प्रथम से रखने चाहिएँ, उन सब को लड़के का पिता और लड़के की मां एक शरावा में रक्खें और कोई केश छेदन करते समय उड़ा हो, उस को गोबर से उठाके शरावा में अथवा उस के पास रखें। तत्पश्चात् इसी प्रकार—
2—ओं येन धाता बृहस्पतेरग्नेरिन्द्रस्य चायुषेऽवपत्।
तेन त आयुषे वपामि सुश्लोक्याय स्वस्तये॥
इस मन्त्र से दूसरी वार केश का समूह दूसरी ओर का काटके उसी प्रकार शरावा में रखे। तत्पश्चात्—
3—ओं येन भूयश्च रात्र्यां ज्योक् च पश्याति सूर्यम्।
तेन त आयुषे वपामि सुश्लोक्याय स्वस्तये॥
इस मन्त्र से तीसरी वार उसी प्रकार केशसमूह को काटके उपरि उक्त तीन मन्त्रों—अर्थात् (ओं येनावपत्॰), (ओं येन धाता॰), (ओं येन भूयश्च॰), और—
4—ओं येन पूषा बृहस्पतेर्वायोरिन्द्रस्य चावपत्।
तेन ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय दीर्घायुष्ट्वाय वर्चसे॥
इस एक, इन चार मन्त्रों को बोलके चौथी वार इसी प्रकार केशों के समूह को काटे। अर्थात् प्रथम दक्षिण बाजू के केश काटने का विधि पूर्ण हुए पश्चात् बायीं ओर के केश काटने का विधि करे। तत्पश्चात् उस के पीछे आगे के केश काटे।
परन्तु चौथी वार काटने में "येन पूषा॰" इस मन्त्र के बदले—
ओं येन भूरिशरादिवं ज्योक् च पश्चाद्धि सूर्यम्।
तने ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय सुश्लोक्याय स्वस्तये॥
यह मन्त्र बोल चौथी वार छेदन करे। तत्पश्चात्—
ओं त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्।
यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽ अस्तु त्र्यायुषम्॥
इस एक मन्त्र को बोलके शिर के पीछे के केश एक वार काटके इसी (ओं त्र्यायुषं॰) मन्त्र को बोलते जाना और ओंधे हाथ के पृष्ठ से बालक के
शिर पर हाथ फेरके मन्त्र पूरा हुए पश्चात् छुरा नाई के हाथ में देके—
ओं यत् क्षुरेण मरयता सुपेशसा वप्ता वपसि केशान्।
शुन्धि शिरो मास्यायुः प्रमोषीः॥
इस मन्त्र को बोलके नापित से पथरी पर छुरे की धार तेज कराके, नापित से बालक का पिता कहे कि—‘इस शीतोष्ण जल से बालक का शिर अच्छे प्रकार कोमल हाथ से भिगो। सावधानी और कोमल हाथ से क्षौर कर। कहीं छुरा न लगने पावे’। इतना कहके कुण्ड से उत्तर दिशा में नापित को ले जा, उसके सम्मुख बालक को पूर्वाभिमुख बैठाके,जितने केश रखने हों, उतने ही केश रखे। परन्तु पांचों ओर थोड़ा-थोड़ा केश रखावे, अथवा किसी एक ओर रखे। अथवा एक वार सब कटवा देवे, पश्चात् दूसरी वार के केश रखने अच्छे होते हैं।
जब क्षौर हो चुके, तब कुण्ड के पास पड़ा वा धरा हुआ देने के योग्य पदार्थ वा शरावा आदि कि जिनमें प्रथम अन्न भरा था, नापित को देवे और मुण्डन किये हुए सब केश दर्भ शमीपत्र और गोबर नाई को देवे। यथायोग्य उस को धन वा वस्त्र भी देवे और नाई केश, दर्भ, शमीपत्र और गोबर को जग्ल में ले जा, गढ़ा खोदके उस में सब डाल ऊपर से मिट्टी से दबा देवे। अथवा गोशाला, नदी वा तालाब के किनारे पर उसी प्रकार केशादि को गाड़ देवे, ऐसा नापित से कह दे। अथवा किसी को साथ भेज देवे, वह उस से उक्त प्रकार करवा लेवे।
क्षौर हुए पश्चात् मक्खन अथवा दही की मलाई हाथ में लगा, बालक के शिर पर लगाके स्नान करा, उत्तम वस्त्र पहिनाके, बालक को पिता अपने पास ले शुभासन पर पूर्वाभिमुख बैठके, पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे सामवेद का महावामदेव्यगान करके, बालक की माता स्त्रियों और बालक का पिता पुरुषों का यथायोग्य सत्कार करके विदा
करें और जाते समय सब लोग तथा बालक के माता-पिता परमेश्वर का ध्यान करके—
"ओं त्वं जीव शरदः शतं वर्धमानः"॥
इस मन्त्र को बोल बालक को आशीर्वाद देके अपने-अपने घर को पधारें। और बालक के माता-पिता प्रसन्न होकर बालक को प्रसन्न रक्खें॥
॥ इति चूडाकर्मसंस्कारविधिः समाप्तः॥
[8]
अथ चूडाकर्मसंस्कारविधिं वक्ष्यामः
यह आठवाँ संस्कार ‘चूडाकर्म’ है, जिस को केशछेदन-संस्कार भी कहते हैं। इस में आश्वलायन गृह्यसूत्र का मत ऐसा है—
तृतीये वर्षे चौलम्॥1॥
उत्तरतोऽग्नेर्व्रीहियवमाषतिलानां शरावाणि निदधाति॥2॥
इसी प्रकार पारस्कर गृह्यसूत्रादि में भी है—
सांवत्सरिकस्य चूडाकरणम्॥
इसी प्रकार गोभिलीय गृह्यसूत्र का भी मत है॥
यह चूडाकर्म अर्थात् मुण्डन बालक के जन्म के तीसरे वर्ष वा एक वर्ष में करना। उत्तरायणकाल शुक्लपक्ष में जिस दिन आनन्दमङ्गल हो, उस दिन यह संस्कार करे।
विधि—आरम्भ में पृष्ठ 4-24 में लिखित विधि करके चार शरावे ले। एक में चावल, दूसरे में यव, तीसरे में उर्द और चौथे शरावे में तिल भरके वेदी के उत्तर में धर देवे। धरके पृष्ठ 20 में लिखे प्रमाणे "ओम् अदितेऽनुमन्यस्व" इत्यादि तीन मन्त्रों से कुण्ड के तीन बाजू, और पृष्ठ 20 में लिखे प्रमाणे ‘ओं देव सवितः प्रसुव॰’ इस मन्त्र से कुण्ड के चारों ओर जल छिटकाके, पूर्व पृष्ठ 19 में लिखित अग्न्याधान समिदाधान कर अग्नि को प्रदीप्त करके, जो समिधा प्रदीप्त हुई हो उस पर लक्ष्य देकर पृष्ठ 20-21 में लिखे प्रमाणे आघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 22-23 में लिखे प्रमाणे आठ आज्याहुति, सब मिलके 16 सोलह आहुति देके, पृष्ठ 21-22 में लिखे प्रमाणे "ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि॰" इत्यादि मन्त्रों से चार आज्याहुति प्रधान होम की देके, पश्चात् पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे स्विष्टकृत् मन्त्र से एक आहुति मिलके पाँच घृत की आहुति देवें।
इतनी क्रिया करके कर्मकर्त्ता परमात्मा का ध्यान करके नाई की ओर प्रथम देखके—
ओम् आयमगन्त्सविता क्षुरेणोष्णेन वाय उदकेनेहि।
आदित्या रुद्रा वसव उन्दन्तु सचेतसः सोमस्य राज्ञो वपत प्रचेतसः॥
—अथर्व॰ कां॰ 6। सू॰ 68॥
इस मन्त्र का जप करके, पिता बालक के पृष्ठ-भाग में बैठके किञ्चित् उष्ण और किञ्चित् ठण्डा जल दोनों पात्रों में लेके—
ओम् उष्णेन वाय उदकेनैधि॥
इस मन्त्र को बोलके दोनों पात्र का जल एक पात्र में मिला देवे।
पश्चात् थोड़ा जल, थोड़ा माखन अथवा दही की मलाई लेके—
ओम् अदितिः श्मश्रु वपत्वाप उन्दन्तु वर्चसा।
चिकित्सतु प्रजापतिर्दीर्घायुत्वाय चक्षसे ॥1॥
—अथर्व॰कां॰ 6। सू॰ 68॥
ओं सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तनूं
दीर्घायुत्वाय वर्चसे॥2॥
इन मन्त्रों को बोलके, बालक के शिर के बालों में तीन वार हाथ फेरके केशों को भिगोवे।तत्पश्चात् कङ्घा लेके केशों को सुधार के इकट्ठा करे, अर्थात् बिखरे न रहें। तत्पश्चात्—
ओम् ओषधे त्रायस्वैनम्॥1॥
इस मन्त्र को बोलके तीन दर्भ लेके दाहिनी बाजू के केशों के समूह को हाथ से दबाके—
ओं विष्णोर्दंष्ट्रोऽसि॥
इस मन्त्र से छुरे की ओर देखके—
ओं शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽ अस्तु मा मा हिंसीः॥
इस मन्त्र को बोलके छुरे को दहिने हाथ में लेवे। तत्पश्चात्—
ओं स्वधिते मैनं हिंसीः॥1॥
ओं निवर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥2॥
इन दो मन्त्रों को बोलके उस छुरे और उन कुशाओं को केशों के समीप ले जाके—
1—ओं येनावपत् सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्।
तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य गोमानश्ववानयमस्तु प्रजावान्॥
—अथर्व॰ का॰ 6। सू॰ 68॥
इस मन्त्र को बोलके कुशासहित उन केशों को काटे *
[*केशछेदन की रीति ऐसी है कि दर्भ और केश दोनों युक्ति से पकड़ कर अर्थात् दोनों ओर से पकड़के बीच में से केशों को छुरे से काटे। यदि छुरे के बदले कैंची से काटे तो भी ठीक है।]
और वे काटे हुए केश और दर्भ शमीवृक्ष के पत्रसहित, अर्थात् यहां शमीवृक्ष के पत्र भी प्रथम से रखने चाहिएँ, उन सब को लड़के का पिता और लड़के की मां एक शरावा में रक्खें और कोई केश छेदन करते समय उड़ा हो, उस को गोबर से उठाके शरावा में अथवा उस के पास रखें। तत्पश्चात् इसी प्रकार—
2—ओं येन धाता बृहस्पतेरग्नेरिन्द्रस्य चायुषेऽवपत्।
तेन त आयुषे वपामि सुश्लोक्याय स्वस्तये॥
इस मन्त्र से दूसरी वार केश का समूह दूसरी ओर का काटके उसी प्रकार शरावा में रखे। तत्पश्चात्—
3—ओं येन भूयश्च रात्र्यां ज्योक् च पश्याति सूर्यम्।
तेन त आयुषे वपामि सुश्लोक्याय स्वस्तये॥
इस मन्त्र से तीसरी वार उसी प्रकार केशसमूह को काटके उपरि उक्त तीन मन्त्रों—अर्थात् (ओं येनावपत्॰), (ओं येन धाता॰), (ओं येन भूयश्च॰), और—
4—ओं येन पूषा बृहस्पतेर्वायोरिन्द्रस्य चावपत्।
तेन ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय दीर्घायुष्ट्वाय वर्चसे॥
इस एक, इन चार मन्त्रों को बोलके चौथी वार इसी प्रकार केशों के समूह को काटे। अर्थात् प्रथम दक्षिण बाजू के केश काटने का विधि पूर्ण हुए पश्चात् बायीं ओर के केश काटने का विधि करे। तत्पश्चात् उस के पीछे आगे के केश काटे।
परन्तु चौथी वार काटने में "येन पूषा॰" इस मन्त्र के बदले—
ओं येन भूरिशरादिवं ज्योक् च पश्चाद्धि सूर्यम्।
तने ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय सुश्लोक्याय स्वस्तये॥
यह मन्त्र बोल चौथी वार छेदन करे। तत्पश्चात्—
ओं त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्।
यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽ अस्तु त्र्यायुषम्॥
इस एक मन्त्र को बोलके शिर के पीछे के केश एक वार काटके इसी (ओं त्र्यायुषं॰) मन्त्र को बोलते जाना और ओंधे हाथ के पृष्ठ से बालक के
शिर पर हाथ फेरके मन्त्र पूरा हुए पश्चात् छुरा नाई के हाथ में देके—
ओं यत् क्षुरेण मरयता सुपेशसा वप्ता वपसि केशान्।
शुन्धि शिरो मास्यायुः प्रमोषीः॥
इस मन्त्र को बोलके नापित से पथरी पर छुरे की धार तेज कराके, नापित से बालक का पिता कहे कि—‘इस शीतोष्ण जल से बालक का शिर अच्छे प्रकार कोमल हाथ से भिगो। सावधानी और कोमल हाथ से क्षौर कर। कहीं छुरा न लगने पावे’। इतना कहके कुण्ड से उत्तर दिशा में नापित को ले जा, उसके सम्मुख बालक को पूर्वाभिमुख बैठाके,जितने केश रखने हों, उतने ही केश रखे। परन्तु पांचों ओर थोड़ा-थोड़ा केश रखावे, अथवा किसी एक ओर रखे। अथवा एक वार सब कटवा देवे, पश्चात् दूसरी वार के केश रखने अच्छे होते हैं।
जब क्षौर हो चुके, तब कुण्ड के पास पड़ा वा धरा हुआ देने के योग्य पदार्थ वा शरावा आदि कि जिनमें प्रथम अन्न भरा था, नापित को देवे और मुण्डन किये हुए सब केश दर्भ शमीपत्र और गोबर नाई को देवे। यथायोग्य उस को धन वा वस्त्र भी देवे और नाई केश, दर्भ, शमीपत्र और गोबर को जग्ल में ले जा, गढ़ा खोदके उस में सब डाल ऊपर से मिट्टी से दबा देवे। अथवा गोशाला, नदी वा तालाब के किनारे पर उसी प्रकार केशादि को गाड़ देवे, ऐसा नापित से कह दे। अथवा किसी को साथ भेज देवे, वह उस से उक्त प्रकार करवा लेवे।
क्षौर हुए पश्चात् मक्खन अथवा दही की मलाई हाथ में लगा, बालक के शिर पर लगाके स्नान करा, उत्तम वस्त्र पहिनाके, बालक को पिता अपने पास ले शुभासन पर पूर्वाभिमुख बैठके, पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे सामवेद का महावामदेव्यगान करके, बालक की माता स्त्रियों और बालक का पिता पुरुषों का यथायोग्य सत्कार करके विदा
करें और जाते समय सब लोग तथा बालक के माता-पिता परमेश्वर का ध्यान करके—
"ओं त्वं जीव शरदः शतं वर्धमानः"॥
इस मन्त्र को बोल बालक को आशीर्वाद देके अपने-अपने घर को पधारें। और बालक के माता-पिता प्रसन्न होकर बालक को प्रसन्न रक्खें॥
॥ इति चूडाकर्मसंस्कारविधिः समाप्तः॥
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