Tuesday, March 19, 2019

जातकर्म संस्कार

जातकर्म संस्कार
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अथ जातकर्मसंस्कारविधिः
इस का समय और प्रमाण और कर्मविधि इस प्रकार करें—
सोष्यन्तीमद्भिरभ्युक्षति॥
—इत्यादि पारस्कर गृह्यसूत्र का प्रमाण है।
इसी प्रकार आश्वलायन, गोभिलीय और शौनकगृह्यसूत्रों में भी लिखा है।
जब प्रसव होने का समय आवे, तब निम्नलिखित मन्त्र से गर्भिणी स्त्री के शरीर पर जल से मार्जन करे—
ओम् एजतु दशमास्यो गर्भो जरायुणा सह।
यथायं वायुरेजति यथा समुद्र एजति।
एवायं दशमास्यो अस्रज्जरायुणा सह॥1॥
—यजुः॰ अ॰ 8। मं॰ 28॥
इस से मार्जन करने के पश्चात्—
ओम् अवैतु पृश्निशेवलं शुने जराय्वत्तवे।
नैव मांसेन पीवरीं न कस्मिंश्चनायतनमव जरायु पद्यताम्॥
इस मन्त्र का जप करके पुनः मार्जन करे।
कुमारं जातं पुराऽन्यैरालम्भात् सर्पिर्मधुनी हिरण्यनिकाषं हिरण्ययेन प्राशयेत्॥
जब पुत्र का जन्म होवे, तब प्रथम दायी आदि स्त्री लोग बालक के शरीर का जरायु पृथक् कर मुख, नासिका, कान, आंख आदि में से मल को शीघ्र दूर कर कोमल वस्त्र से पोंछ, शुद्ध कर, पिता के गोद में बालक को देवें। पिता जहां वायु और शीत का प्रवेश न हो, वहां बैठके एक बीता भर नाड़ी को छोड़, ऊपर सूत से बांधके, उस बन्धन के ऊपर से नाड़ीछेदन करके किञ्चित् उष्ण जल से बालक को स्नान करा, शुद्ध वस्त्र से पोंछ, नवीन शुद्ध वस्त्र पहिना जो प्रसूता-घर के बाहर पूर्वोक्त प्रकार कुण्ड कर रखा हो अथवा तांबे के कुण्ड में समिधा पूर्वलिखित प्रमाणे चयन कर पूर्वोक्त सामान्यविध्युक्त पृष्ठ 17-19 में कहे प्रमाणे अग्न्याधान समिदाधान करके, अग्नि को प्रदीप्त करके, सुगन्धित घृतादि वेदी के पास रखके, हाथ-पग धोके,

एक पीठासन अर्थात् शुभासन पुरोहित* के लिये कुण्ड के दक्षिण भाग में रखे, वह उस पर उत्तराभिमुख बैठे और यजमान अर्थात् बालक का पिता हाथ पग धोके वेदी के पश्चिम भाग में आसन बिछा, उस पर उपवस्त्र ओढ़के पूर्वाभिमुख बैठे तथा सब सामग्री अपने और पुरोहित के पास रखके पुरोहित पद के स्वीकार के लिये बोले—
[*पुरोहित=धर्मात्मा शास्त्रोक्त विधि को पूर्णरीति से जाननेहारा, विद्वान्, सद्धर्मी, कुलीन, निर्व्यसनी, सुशील, वेदप्रिय, पूजनीय, सर्वोपकारी गृहस्थ की ‘पुरोहित’ संज्ञा है।]
ओम् आ वसोः सदने सीद॥
तत्पश्चात् पुरोहित—ओं सीदामि॥
बोलके आसन पर बैठके, पृष्ठ 19 में लिखे प्रमाणे अयं त इध्म॰ आदि चार मन्त्रों से वेदी में चन्दन की समिदाधान करे और प्रदीप्त समिधा पर पूर्वोक्त सिद्ध किये घी की पृष्ठ 20-21 में लिखे प्रमाणे आघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार दोनों मिलके 8 आठ आज्याहुति देनी। तत्पश्चात्—
ओं या तिरश्ची निपद्यते अहं विधरणी इति।
तां त्वा घृतस्य धारया यजे संराधनीमहम्।
संराधिन्यै देव्यै देष्ट्र्यै स्वाहा॥
इदं संराधिन्यै इदन्न मम॥1॥
ओं विपश्चित् पुच्छमभरत् तद्धाता पुनराहरत्।
परेहि त्वं विपश्चित् पुमानयं जनिष्यतेऽसौ नाम स्वाहा॥
इदं धात्रे इदन्न मम॥2॥
इन दोनों मन्त्रों से 2 दो आज्याहुति करके, पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे वामदेव्य गान करके, 4-11 पृष्ठ में लिखे प्रमाणे ईश्वरोपासना करें।
तत्पश्चात् घी और मधु दोनों बरोबर मिलाके, जो प्रथम सोने की शलाका कर रखी हो, उस से बालक की जीभ पर "ओ३म्" यह अक्षर लिखके उस के दक्षिण कान में "वेदोऽसीति"—‘तेरा गुप्त नाम वेद है’ ऐसा सुनाके पूर्व मिलाये हुए घी और मधु को उस सोने की शलाका से बालक को नीचे लिखे मन्त्र से थोड़ा-थोड़ा चटावे—
ओं प्र ते ददामि मधुनो घृतस्य वेदं सवित्रा प्रसूतं मघोनाम्।
आयुष्मान् गुप्तो देवताभिः शतं जीव शरदो लोके अस्मिन्॥1॥
ओं भूस्त्वयि दधामि॥2॥
ओं भुवस्त्वयि दधामि॥3॥
ओं स्वस्त्वयि दधामि॥4॥
ओं भूर्भुवः स्वस्सर्वं त्वयि दधामि॥5॥
ओं सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्।
सनिं मेधामयासिषं स्वाहा॥6॥
इन प्रत्येक मन्त्रों से छह वार घृत-मधु प्राशन कराके तत्पश्चात् चावल और जव को शुद्ध कर पानी से पीस, वस्त्र से छान, एक पात्र में रखके हाथ के अंगूठा और अनामिका से थोड़ा सा लेके—
ओम् इदमाज्यमिदमन्नमिदमायुरिदममृतम्॥
इस मन्त्र को बोलके बालक के मुख में एक बिन्दु छोड़ देवे।
यह एक गोभिलीय गृह्यसूत्र का मत है, सब का नहीं।
पश्चात् बालक का पिता बालक के दक्षिण कान में मुख लगाके निम्नलिखित मन्त्र बोले—
ओं मेधां ते देवः सविता मेधां देवी सरस्वती।
मेधां   ते     अश्विनौ      देवावाधत्तां    पुष्करस्रजौ॥1॥
ओम् अग्निरायुष्मान्त्स वनस्पतिभिरायुष्माँस्तेन
त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि॥2॥
ओं सोम आयुष्मान्त्स ओषधीभिरायुष्माँस्तेन॰*॥3॥
[*यहां पूर्व मन्त्र का शेषभाग (त्वा) इत्यादि उत्तर मन्त्रों के पश्चात् बोले।]
ओं ब्रह्माऽऽयुष्मत् तद् ब्राह्मणैरायुष्मत् तेन॰॥4॥
ओं    देवा   आयुष्मन्तस्तेऽमृतेनायुष्मन्तस्तेन॰॥5॥
ओम् ऋषय आयुष्मन्तस्ते व्रतैरायुष्मन्तस्तेन॰॥6॥
ओं पितर आयुष्मन्तस्ते स्वधाभिरायुष्मन्तस्तेन॰॥7॥
ओं यज्ञ आयुष्मान्त्स दक्षिणाभिरायुष्माँस्तेन॰॥8॥
ओं समुद्र आयुष्मान्त्स स्रवन्तीभिरायुष्माँस्तेन
त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि॥9॥
इन नव मन्त्रों का जप करे। इसी प्रकार बांयें कान पर मुख धर ये ही नव मन्त्र पुनः जपे।
इस के पीछे बालक के कन्धों पर कोमल स्पर्श से हाथ धर अर्थात् बालक के स्कन्धों पर हाथ का बोझ न पड़े, धरके निम्नलिखित मन्त्र बोले—
ओम् इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चित्तिं दक्षस्य सुभगत्वमस्मे।
पोषं रयीणामरिष्टिं तनूनां स्वाद्मानं वाचः सुदिनत्वमह्नाम्॥1॥
अस्मे प्र यन्धि मघवन्नृजीषिन्निन्द्र रायो विश्ववारस्य भूरेः।
अस्मे शतं शरदो जीवसे धा अस्मे वीराञ्छश्वत इन्द्र शिप्रिन्॥2॥
ओम् अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्तृतं भव।
वेदो वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम्॥3॥
इन तीन मन्त्रों को बोले। तत्पश्चात्—
ओं त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्।
यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽ अस्तु त्र्यायुषम्॥
इस मन्त्र का तीन वार जप करे।
तत्पश्चात् बालक के स्कन्धों पर से हाथ उठा ले और जिस जगह पर बालक का जन्म हुआ हो वहां जाके—
ओं वेद ते भूमि हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्। वेदाहं तन्मां तद्विद्यात् पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतम्॥1॥
इस मन्त्र का जप करे। तथा—
यत्ते   सुसीमे हृदयं  हितमन्तः    प्रजापतौ      ।
वेदाहं मन्ये तद् ब्रह्म माहं पौत्रमघं निगाम्॥2॥
यत् पृथिव्या अनामृतं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्।
वेदामृतस्येह   नाम   माहं   पौत्रमघं रिषम्  ॥3॥
इन्द्राग्नी शर्म यच्छतं प्रजायै मे प्रजापती।
यथायं न     प्रमीयते      पुत्रो   जनित्र्या      अधि  ॥4॥
यददश्चन्द्रमसि कृष्णं पृथिव्या हृदयं श्रितम्।
तदहं विद्वांस्तत् पश्यन् माहं पौत्रमघं रुदम्॥5॥
इन मन्त्रों को पढ़ता हुआ सुगन्धित जल से प्रसूता के शरीर का मार्जन करे।
कोऽसि कतमोऽस्येषोऽस्यमृतोऽसि।
आहस्पत्यं    मासं   प्रविशासौ     ॥6॥
स त्वाह्ने परिददात्वहस्त्वा रात्र्यै परिददातु रात्रिस्त्वाहोरात्राभ्यां परिददात्वहोरात्रौ त्वार्द्धमासेभ्यः परिदत्तामर्द्धमासास्त्वा मासेभ्यः परिददतु मासास्त्वर्तुभ्यः परिददत्वृतवस्त्वा संवत्सराय परिददतु संवत्सरस्त्वायुषे जरायै परिददात्वसौ॥7॥

इन मन्त्रों को पढ़के बालक को आशीर्वाद देवे। पुनः—
अङ्गाद् अङ्गात्      संस्रवसि हृदयादधिजायसे।
प्राणं ते प्राणेन सन्दधामि जीव मे यावदायुषम्॥8॥
अङ्गादङ्गात्  सम्भवसि     हृदयादधिजायसे      ।
वेदो वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम्॥9॥
अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्तृतं भव।
आत्माऽसि पुत्र मा मृथाः स जीव शरदः शतम्॥10॥
पशूनां त्वा हिङ्कारेणाभिजिघ्राम्यसौ॥11॥
इन मन्त्रों को पढ़के पुत्र के शिर का आघ्राण करे अर्थात् सूंघे। इसी प्रकार जब-जब परदेश से आवे वा जावे, तब-तब भी इस क्रिया को करे, जिस से पुत्र और पिता-माता में अति प्रेम बढ़े।
ओम् इडासि मैत्रावरुणी वीरे वीरमजीजनथाः।
सा त्वं वीरवती भव याऽस्मान् वीरवतोऽकरत्॥
इस मन्त्र से ईश्वर की प्रार्थना करके, प्रसूता स्त्री को प्रसन्न करके, पश्चात् स्त्री के दोनों स्तन किञ्चित् उष्ण सुगन्धित जल से प्रक्षालन कर पोंछके—
ओम् इमं स्तनमूर्ज स्वन्तं धयापां प्रपीनमग्ने सरिरस्य मध्ये।
उत्सं जुषस्व मधुमन्तमर्वन्त्समुद्रियं सदनमा विशस्व॥
इस मन्त्र को पढ़के दक्षिण स्तन प्रथम बालक के मुख में देवे। इसके पश्चात्—
ओं यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः।
येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवे कः॥
इस मन्त्र को पढ़के वाम स्तन बालक के मुख में देवे। तत्पश्चात्—
ओम् आपो देवेषु जाग्रथ यथा देवेषु जाग्रथ।
एवमस्यां सूतिकायां सपुत्रिकायां जाग्रथ॥
इस मन्त्र से प्रसूता स्त्री के शिर की ओर एक कलश जल से पूर्ण भरके दश रात्रि तक वहीं धर रक्खे तथा प्रसूता स्त्री प्रसूत-स्थान में दश दिन तक रहे। वहां नित्य सायं और प्रातःकाल सन्धिवेला में निम्नलिखित दो मन्त्रों से भात और सरसों मिलाके दश दिन तक बराबर आहुतियाँ देवे—
ओं शण्डामर्का उपवीरः शौण्डिकेय उलूखलः।
मलिम्लुचो द्रोणासश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा॥
इदं    शण्डामर्काभ्यामुपवीराय      शौण्डिकेयायोलूखलाय
मलिम्लुचाय द्रोणेभ्यश्च्यवनाय इदन्न मम॥1॥
ओम् आलिखन्ननिमिषः किंवदन्त उपश्रुतिर्हर्यक्षः कुम्भीशत्रुः
पात्रपाणिर्नृमणिर्हन्त्रीमुखः सर्षपारुणश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा॥
इदमालिखतेऽनिमिषाय किंवदद्भ्य उपश्रुतये हर्यक्षाय कुम्भीशत्रवे पात्रपाणये नृमणये हन्त्रीमुखाय सर्षपारुणाय च्यवनाय इदन्न मम॥2॥
इन मन्त्रों से 10 दिन तक होम करके पश्चात् अच्छे-अच्छे विद्वान् धार्मिक वैदिक मतवाले बाहर खड़े रहकर और बालक का पिता भीतर रहकर आशीर्वादरूपी नीचे लिखे मन्त्रों का पाठ आनन्दित होके करें—
मा नो हासिषुऋर्षयो दैव्या ये तनूपा ये नस्तन्वद्वस्तनूजाः।
अमर्त्या मर्त्याँ अभि नः सचध्वमायुर्धत्त प्रतरं जीवसे नः॥1॥
—अथर्व॰का॰ 6। अनु॰ 4। सू॰ 41॥
इमं जीवेभ्यः परिधिं दधामि मैषां नु गादपरो अर्थमेतम्।
शतं जीवन्तः शरदः पुरूचीस्तिरो मृत्युं दधतां पर्वतेन॥2॥
—अथर्व॰ का॰ 12। अनु॰ 2। मं॰ 23॥
विवस्वान्नो अभयं कृणोतु यः सुत्रामा जीरदानुः सुदानुः।
इहेमे वीरा बहवो भवन्तु गोमदश्ववन्मय्यस्तु पुष्टम्॥3॥
—अथर्व॰का॰ 18। अनु॰ 3। मं॰ 61॥

॥ इति जातकर्मसंस्कारविधिः समाप्तः॥


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