नामकरण संस्कार
[5]
अथ नामकरणसंस्कारविधिं वक्ष्यामः
अत्र प्रमाणम्—नाम चास्मै दद्युः॥1॥
घोषवदाद्यन्तरन्तःस्थमभिनिष्ठानान्तं द्व्यक्षरम्॥2॥
चतुरक्षरं वा॥3॥
द्व्यक्षरं प्रतिष्ठाकामश्चतुरक्षरं ब्रह्मवर्चसकामः॥4॥
युग्मानि त्वेव पुंसाम्॥5॥
अयुजानि स्त्रीणाम्॥6॥
अभिवादनीयं च समीक्षेत तन्मातापितरौ विदध्यातामोपनयनात्॥7॥
—इत्याश्वलायनगृह्यसूत्रेषु॥
दशम्यामुत्थाप्य पिता नाम करोति— द्व्यक्षरं चतुरक्षरं वा घोषवदाद्यन्तरन्तःस्थं दीर्घाभिनिष्ठानान्तं कृतं कुर्यान्न तद्धितम्,अयुजाक्षरमाकारान्तं स्त्रियै। शर्म ब्राह्मणस्य वर्म क्षत्रियस्य गुप्तेति वैश्यस्य॥
इसी प्रकार गोभिलीय और शौनक गृह्यसूत्र में भी लिखा है॥
नामकरण—अर्थात् जन्मे हुए बालक का सुन्दर नाम धरे।
नामकरण का काल—जिस दिन जन्म हो उस दिन से लेके 10 दिन छोड़ ग्यारहवें, वा एक सौ एकवें अथवा दूसरे वर्ष के आरम्भ में जिस दिन जन्म हुआ हो, नाम धरे।
जिस दिन नाम धरना हो, उस दिन अति प्रसन्नता से इष्ट मित्र हितैषी लोगों को बुला, यथावत् सत्कार कर, क्रिया का आरम्भ यजमान बालक का पिता और ऋत्विज करें।
पुनः पृष्ठ 4-21 में लिखे प्रमाणे सब मनुष्य ईश्वरोपासना, स्वस्तिवाचन, शान्तिकरण और सामान्यप्रकरणस्थ सम्पूर्ण विधि करके आघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 22-23 में लिखे प्रमाणे (त्वन्नो अग्ने॰) इत्यादि आठ मन्त्रों से 8 आठ आहुति, अर्थात् सब मिलाके 16 घृताहुति करें।
तत्पश्चात् बालक को शुद्ध स्नान करा, शुद्ध वस्त्र पहिनाके उस की माता कुण्ड के समीप बालक के पिता के पीछे से आ दक्षिण भाग में होकर, बालक का मस्तक उत्तर दिशा में रखके, बालक के पिता के हाथ में देवे। और स्त्री पुनः उसी प्रकार पति के पीछे होकर उत्तर भाग में पूर्वाभिमुख बैठे। तत्पश्चात् पिता उस बालक को उत्तर में शिर और दक्षिण में पग करके अपनी पत्नी को देवे। पश्चात् जो उसी संस्कार के लिए कर्त्तव्य हो, उस प्रथम प्रधान होम को करें। पूर्वोक्त प्रकार घृत और सब शाकल्य सिद्ध कर रखें। उस में से प्रथम घी का चमसा भरके—
ओं प्रजापतये स्वाहा॥
इस मन्त्र से एक आहुति देकर, पीछे जिस तिथि जिस नक्षत्र में बालक का जन्म हुआ हो, उस तिथि और उस नक्षत्र का नाम लेके, उस तिथि और उस नक्षत्र के देवता के नाम से 4 चार आहुति देनी। अर्थात् एक तिथि, दूसरी तिथि के देवता, तीसरी नक्षत्र, और चौथी नक्षत्र के देवता के नाम से, अर्थात् तिथि नक्षत्र और उन के देवताओं के नाम के अन्त में चतुर्थी विभक्ति का रूप और स्वाहान्त बोलके 4 चार घी की आहुति देवे। जैसे किसी का जन्म प्रतिपदा और अश्विनी नक्षत्र में हुआ हो तो—
ओं प्रतिपदे स्वाहा। ओं ब्रह्मणे स्वाहा। ओम् अश्विन्यै
स्वाहा। ओम् अश्विभ्यां स्वाहा॥*
[*तिथिदेवताः—1. ब्रह्मन्। 2. त्वष्टृ। 3. विष्णु। 4. यम। 5. सोम। 6. कुमार। 7. मुनि। 8. वसु। 9. शिव। 10. धर्म। 11. रुद्र। 12. वायु। 13. काम। 14. अनन्त। 15. विश्वेदेव। 30. पितर।
नक्षत्रदेवताः—अश्विनी—अश्वी। भरणी—यम। कृत्तिका—अग्नि।रोहिणी—प्रजापति। मृगशीर्ष—सोम। आर्द्रा—रुद्र। पुनर्वसु—अदिति। पुष्य—बृहस्पति। आश्लेषा—सर्प। मघा—पितृ। पूर्वाफाल्गुनी—भग। उत्तराफाल्गुनी—अर्यमन्। हस्त—सवितृ। चित्रा—त्वष्टृ। स्वाति—वायु। विशाखा—इन्द्राग्नी। अनुराधा—मित्र। ज्येष्ठा—इन्द्र। मूल—निऋर्ति। पूर्वाषाढा—अप्। उत्तराषाढा—विश्वेदेव। श्रवण—विष्णु। धनिष्ठा—वसु। शतभिषज्—वरुण। पूर्वाभाद्रपदा—अजैकपाद्। उत्तराभाद्रपदा—अहिर्बुध्न्य। रेवती—पूषन्।]
तत्पश्चात् पृष्ठ 21 में लिखी हुई स्विष्टकृत्-मन्त्र से एक आहुति और पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे 4 चार व्याहृति आहुति दोनों मिलके 5 पांच आहुति देके, तत्पश्चात् माता बालक को लेके शुभ आसन पर बैठे। और पिता बालक के नासिका द्वार से बाहर निकलते हुए वायु का स्पर्श करके—
कोऽसि कतमोऽसि कस्यासि को नामासि।
यस्य ते नामामन्महि यं त्वा सोमेनातीतृपाम॥
भूर्भुवः स्वः। सुप्रजाः प्रजाभिः स्यां सुवीरो वीरैः सुपोषः पोषैः॥
—यजुः अ॰ 7। मं॰ 29॥
ओं कोऽसि कतमोऽस्येषोऽस्यमृतोऽसि। आहस्पत्यं मासं प्रविशासौ॥
जो यह "असौ" पद है, इस के पीछे बालक का ठहराया हुआ नाम, अर्थात् जो पुत्र हो तो नीचे लिखे प्रमाणे दो अक्षर का वा चार अक्षर का, घोषसंज्ञक और अन्तःस्थ वर्ण अर्थात् पांचों वर्गों के दो-दो अक्षर छोड़के तीसरा चौथा पांचवाँ और य र ल व—ये चार वर्ण नाम में अवश्य आवें*।
[*ग, घ, ङ, ज, झ, ञ, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म ये स्पर्श और य, र, ल, व ये चार अन्तःस्थ और ह एक ऊष्मा, इतने अक्षर नाम में होने चाहियें, और स्वरों में से कोई भी स्वर हो। जैसे—भद्रः, भद्रसेनः, देवदत्तः, भवः, भवनाथः, नागदेवः, रुद्रदत्तः, हरिदेवः इत्यादि। पुरुषों का समाक्षर नाम रखना चाहिये, तथा स्त्रियों का विषमाक्षर नाम रखे। अन्त्य में दीर्घ स्वर और तद्धितान्त भी होवे। जैसे—श्रीः, ह्रीः, यशोदा, सुखदा, गान्धारी, सौभाग्यवती, कल्याणक्रोडा इत्यादि। परन्तु स्त्रियों के जिस प्रकार के नाम कभी न रखे, उसमें प्रमाण—
नर्क्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम्।
न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषणनामिकाम्॥ —मनुस्मृतौ
(ऋक्ष) रोहिणी, रेवती इत्यादि (वृक्ष) चम्पा, तुलसी इत्यादि (नदी) गङ्गा, यमुना, सरस्वती इत्यादि (अन्त्य) चाण्डाली इत्यादि (पर्वत) विन्ध्याचला, हिमालया इत्यादि (पक्षी) कोकिला, हंसा इत्यादि (अहि) सर्पिणी, नागी इत्यादि (प्रेष्य) दासी, किंकरी इत्यादि (भयंकर) भीमा, भयंकरी, चण्डिकाइत्यादि नाम निषिद्ध हैं।]
जैसे—देव अथवा जयदेव। ब्राह्मण हो तो देवशर्मा, क्षत्रिय हो तो देववर्मा, वैश्य हो तो देवगुप्त और शूद्र हो तो देवदास इत्यादि। और जो स्त्री हो तो एक, तीन वा पांच अक्षर का नाम रखे—श्री, ह्री, यशोदा, सुखदा, सौभाग्यप्रदा इत्यादि। नामों को प्रसिद्ध बोलके, पुनः "असौ" पद के स्थान में बालक का नाम धरके पुनः (ओं कोऽसि॰) ऊपर लिखित मन्त्र बोलना।
ओं स त्वाह्ने परिददात्वहस्त्वा रात्र्यै परिददातु रात्रिस्त्वाहोरात्राभ्यां परिददात्वहोरात्रौ त्वार्द्धमासेभ्यः परिदत्तामर्द्धमासास्त्वा मासेभ्यः परिददतु मासास्त्वर्तुभ्यः परिददत्वृतवस्त्वा संवत्सराय परिददतु संवत्सरस्त्वायुषे जरायै परिददातु, असौ॥
इन मन्त्रों से बालक को जैसा जातकर्म में लिख आये हैं, वैसे आशीर्वाद देवें। इस प्रमाणे बालक का नाम रखके संस्कार में आये हुए मनुष्यों को वह नाम सुनाके पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे महावामदेव्य गान करें।
तत्पश्चात् कार्यार्थ आये हुए मनुष्यों को आदर सत्कार करके विदा करे। और सब लोग जाते समय पृष्ठ 4-6 में लिखे प्रमाणे परमेश्वर की स्तुतिप्रार्थनोपासना करके बालक को आशीर्वाद देवें कि—
"हे बालक ! त्वमायुष्मान् वर्चस्वी तेजस्वी श्रीमान् भूयाः।"
हे बालक ! [तू] आयुष्मान्, विद्यावान्, धर्मात्मा, यशस्वी, पुरुषार्थी, प्रतापी, परोपकारी, श्रीमान् हो॥
॥ इति नामकरणसंस्कारविधिः समाप्तः॥
[5]
अथ नामकरणसंस्कारविधिं वक्ष्यामः
अत्र प्रमाणम्—नाम चास्मै दद्युः॥1॥
घोषवदाद्यन्तरन्तःस्थमभिनिष्ठानान्तं द्व्यक्षरम्॥2॥
चतुरक्षरं वा॥3॥
द्व्यक्षरं प्रतिष्ठाकामश्चतुरक्षरं ब्रह्मवर्चसकामः॥4॥
युग्मानि त्वेव पुंसाम्॥5॥
अयुजानि स्त्रीणाम्॥6॥
अभिवादनीयं च समीक्षेत तन्मातापितरौ विदध्यातामोपनयनात्॥7॥
—इत्याश्वलायनगृह्यसूत्रेषु॥
दशम्यामुत्थाप्य पिता नाम करोति— द्व्यक्षरं चतुरक्षरं वा घोषवदाद्यन्तरन्तःस्थं दीर्घाभिनिष्ठानान्तं कृतं कुर्यान्न तद्धितम्,अयुजाक्षरमाकारान्तं स्त्रियै। शर्म ब्राह्मणस्य वर्म क्षत्रियस्य गुप्तेति वैश्यस्य॥
इसी प्रकार गोभिलीय और शौनक गृह्यसूत्र में भी लिखा है॥
नामकरण—अर्थात् जन्मे हुए बालक का सुन्दर नाम धरे।
नामकरण का काल—जिस दिन जन्म हो उस दिन से लेके 10 दिन छोड़ ग्यारहवें, वा एक सौ एकवें अथवा दूसरे वर्ष के आरम्भ में जिस दिन जन्म हुआ हो, नाम धरे।
जिस दिन नाम धरना हो, उस दिन अति प्रसन्नता से इष्ट मित्र हितैषी लोगों को बुला, यथावत् सत्कार कर, क्रिया का आरम्भ यजमान बालक का पिता और ऋत्विज करें।
पुनः पृष्ठ 4-21 में लिखे प्रमाणे सब मनुष्य ईश्वरोपासना, स्वस्तिवाचन, शान्तिकरण और सामान्यप्रकरणस्थ सम्पूर्ण विधि करके आघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 22-23 में लिखे प्रमाणे (त्वन्नो अग्ने॰) इत्यादि आठ मन्त्रों से 8 आठ आहुति, अर्थात् सब मिलाके 16 घृताहुति करें।
तत्पश्चात् बालक को शुद्ध स्नान करा, शुद्ध वस्त्र पहिनाके उस की माता कुण्ड के समीप बालक के पिता के पीछे से आ दक्षिण भाग में होकर, बालक का मस्तक उत्तर दिशा में रखके, बालक के पिता के हाथ में देवे। और स्त्री पुनः उसी प्रकार पति के पीछे होकर उत्तर भाग में पूर्वाभिमुख बैठे। तत्पश्चात् पिता उस बालक को उत्तर में शिर और दक्षिण में पग करके अपनी पत्नी को देवे। पश्चात् जो उसी संस्कार के लिए कर्त्तव्य हो, उस प्रथम प्रधान होम को करें। पूर्वोक्त प्रकार घृत और सब शाकल्य सिद्ध कर रखें। उस में से प्रथम घी का चमसा भरके—
ओं प्रजापतये स्वाहा॥
इस मन्त्र से एक आहुति देकर, पीछे जिस तिथि जिस नक्षत्र में बालक का जन्म हुआ हो, उस तिथि और उस नक्षत्र का नाम लेके, उस तिथि और उस नक्षत्र के देवता के नाम से 4 चार आहुति देनी। अर्थात् एक तिथि, दूसरी तिथि के देवता, तीसरी नक्षत्र, और चौथी नक्षत्र के देवता के नाम से, अर्थात् तिथि नक्षत्र और उन के देवताओं के नाम के अन्त में चतुर्थी विभक्ति का रूप और स्वाहान्त बोलके 4 चार घी की आहुति देवे। जैसे किसी का जन्म प्रतिपदा और अश्विनी नक्षत्र में हुआ हो तो—
ओं प्रतिपदे स्वाहा। ओं ब्रह्मणे स्वाहा। ओम् अश्विन्यै
स्वाहा। ओम् अश्विभ्यां स्वाहा॥*
[*तिथिदेवताः—1. ब्रह्मन्। 2. त्वष्टृ। 3. विष्णु। 4. यम। 5. सोम। 6. कुमार। 7. मुनि। 8. वसु। 9. शिव। 10. धर्म। 11. रुद्र। 12. वायु। 13. काम। 14. अनन्त। 15. विश्वेदेव। 30. पितर।
नक्षत्रदेवताः—अश्विनी—अश्वी। भरणी—यम। कृत्तिका—अग्नि।रोहिणी—प्रजापति। मृगशीर्ष—सोम। आर्द्रा—रुद्र। पुनर्वसु—अदिति। पुष्य—बृहस्पति। आश्लेषा—सर्प। मघा—पितृ। पूर्वाफाल्गुनी—भग। उत्तराफाल्गुनी—अर्यमन्। हस्त—सवितृ। चित्रा—त्वष्टृ। स्वाति—वायु। विशाखा—इन्द्राग्नी। अनुराधा—मित्र। ज्येष्ठा—इन्द्र। मूल—निऋर्ति। पूर्वाषाढा—अप्। उत्तराषाढा—विश्वेदेव। श्रवण—विष्णु। धनिष्ठा—वसु। शतभिषज्—वरुण। पूर्वाभाद्रपदा—अजैकपाद्। उत्तराभाद्रपदा—अहिर्बुध्न्य। रेवती—पूषन्।]
तत्पश्चात् पृष्ठ 21 में लिखी हुई स्विष्टकृत्-मन्त्र से एक आहुति और पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे 4 चार व्याहृति आहुति दोनों मिलके 5 पांच आहुति देके, तत्पश्चात् माता बालक को लेके शुभ आसन पर बैठे। और पिता बालक के नासिका द्वार से बाहर निकलते हुए वायु का स्पर्श करके—
कोऽसि कतमोऽसि कस्यासि को नामासि।
यस्य ते नामामन्महि यं त्वा सोमेनातीतृपाम॥
भूर्भुवः स्वः। सुप्रजाः प्रजाभिः स्यां सुवीरो वीरैः सुपोषः पोषैः॥
—यजुः अ॰ 7। मं॰ 29॥
ओं कोऽसि कतमोऽस्येषोऽस्यमृतोऽसि। आहस्पत्यं मासं प्रविशासौ॥
जो यह "असौ" पद है, इस के पीछे बालक का ठहराया हुआ नाम, अर्थात् जो पुत्र हो तो नीचे लिखे प्रमाणे दो अक्षर का वा चार अक्षर का, घोषसंज्ञक और अन्तःस्थ वर्ण अर्थात् पांचों वर्गों के दो-दो अक्षर छोड़के तीसरा चौथा पांचवाँ और य र ल व—ये चार वर्ण नाम में अवश्य आवें*।
[*ग, घ, ङ, ज, झ, ञ, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म ये स्पर्श और य, र, ल, व ये चार अन्तःस्थ और ह एक ऊष्मा, इतने अक्षर नाम में होने चाहियें, और स्वरों में से कोई भी स्वर हो। जैसे—भद्रः, भद्रसेनः, देवदत्तः, भवः, भवनाथः, नागदेवः, रुद्रदत्तः, हरिदेवः इत्यादि। पुरुषों का समाक्षर नाम रखना चाहिये, तथा स्त्रियों का विषमाक्षर नाम रखे। अन्त्य में दीर्घ स्वर और तद्धितान्त भी होवे। जैसे—श्रीः, ह्रीः, यशोदा, सुखदा, गान्धारी, सौभाग्यवती, कल्याणक्रोडा इत्यादि। परन्तु स्त्रियों के जिस प्रकार के नाम कभी न रखे, उसमें प्रमाण—
नर्क्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम्।
न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषणनामिकाम्॥ —मनुस्मृतौ
(ऋक्ष) रोहिणी, रेवती इत्यादि (वृक्ष) चम्पा, तुलसी इत्यादि (नदी) गङ्गा, यमुना, सरस्वती इत्यादि (अन्त्य) चाण्डाली इत्यादि (पर्वत) विन्ध्याचला, हिमालया इत्यादि (पक्षी) कोकिला, हंसा इत्यादि (अहि) सर्पिणी, नागी इत्यादि (प्रेष्य) दासी, किंकरी इत्यादि (भयंकर) भीमा, भयंकरी, चण्डिकाइत्यादि नाम निषिद्ध हैं।]
जैसे—देव अथवा जयदेव। ब्राह्मण हो तो देवशर्मा, क्षत्रिय हो तो देववर्मा, वैश्य हो तो देवगुप्त और शूद्र हो तो देवदास इत्यादि। और जो स्त्री हो तो एक, तीन वा पांच अक्षर का नाम रखे—श्री, ह्री, यशोदा, सुखदा, सौभाग्यप्रदा इत्यादि। नामों को प्रसिद्ध बोलके, पुनः "असौ" पद के स्थान में बालक का नाम धरके पुनः (ओं कोऽसि॰) ऊपर लिखित मन्त्र बोलना।
ओं स त्वाह्ने परिददात्वहस्त्वा रात्र्यै परिददातु रात्रिस्त्वाहोरात्राभ्यां परिददात्वहोरात्रौ त्वार्द्धमासेभ्यः परिदत्तामर्द्धमासास्त्वा मासेभ्यः परिददतु मासास्त्वर्तुभ्यः परिददत्वृतवस्त्वा संवत्सराय परिददतु संवत्सरस्त्वायुषे जरायै परिददातु, असौ॥
इन मन्त्रों से बालक को जैसा जातकर्म में लिख आये हैं, वैसे आशीर्वाद देवें। इस प्रमाणे बालक का नाम रखके संस्कार में आये हुए मनुष्यों को वह नाम सुनाके पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे महावामदेव्य गान करें।
तत्पश्चात् कार्यार्थ आये हुए मनुष्यों को आदर सत्कार करके विदा करे। और सब लोग जाते समय पृष्ठ 4-6 में लिखे प्रमाणे परमेश्वर की स्तुतिप्रार्थनोपासना करके बालक को आशीर्वाद देवें कि—
"हे बालक ! त्वमायुष्मान् वर्चस्वी तेजस्वी श्रीमान् भूयाः।"
हे बालक ! [तू] आयुष्मान्, विद्यावान्, धर्मात्मा, यशस्वी, पुरुषार्थी, प्रतापी, परोपकारी, श्रीमान् हो॥
॥ इति नामकरणसंस्कारविधिः समाप्तः॥
No comments:
Post a Comment