Tuesday, March 19, 2019

कर्णवेध संस्कार


[9]
अथ कर्णवेधसंस्कारविधिं वक्ष्यामः
अत्र प्रमाणम्—
कर्णवेधो वर्षे तृतीये पञ्चमे वा॥
—यह आश्वलायन गृह्यसूत्र का वचन है॥
बालक के कर्ण वा नासिका के वेध का समय जन्म से तीसरे वा पांचवें वर्ष का उचित है।
जो दिन कर्ण वा नासिका के वेध का ठहराया हो, उसी दिन बालक को प्रातःकाल शुद्ध जल से स्नान और वस्त्रालङ्कार धारण कराके बालक की माता यज्ञशाला में लावे। पृष्ठ 4-24 तक लिखा हुआ सब विधि करे और उस बालक के आगे कुछ खाने का पदार्थ वा खिलौना धरके—
ओं भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥
इस मन्त्र को पढ़के चरक सुश्रुत वैद्यक-ग्रन्थों के जाननेवाले सद्वैद्य के हाथ से कर्ण वा नासिका वेध करावें कि जो नाड़ी आदि को बचाके वेध कर सके। पूर्वोक्त मन्त्र से दक्षिण कान। और—
ओं वक्ष्यन्ती वेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियं सखायं परिषस्वजाना।
योषेव शिङ्क्ते वितताधि धन्वञ्ज्या इयं समने पारयन्ती॥
इस मन्त्र को पढ़के दूसरे वाम कर्ण का वेध करे। तत्पश्चात् वही वैद्य उन छिद्रों में शलाका रक्खे कि जिस से छिद्र पूर न जावें। और ऐसी ओषधि उस पर लगावे, जिस से कान पकें नहीं और शीघ्र अच्छे हो जावें॥

॥ इति कर्णवेधसंस्कारविधिः समाप्तः॥


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