[7]
अथान्नप्राशनविधिं वक्ष्यामः
‘अन्नप्राशन’ संस्कार तभी करे, जब बालक की शक्ति अन्न पचाने योग्य होवे। इस में आश्वलायन गृह्यसूत्र का प्रमाण—
षष्ठे मास्यन्नप्राशनम्॥1॥
घृतौदनं तेजस्कामः॥2॥
दधिमधुघृतमिश्रितमन्नं प्राशयेत्॥3॥
—इसी प्रकार पारस्करगृह्यसूत्रादि में भी है॥
छठे महीने बालक को अन्नप्राशन करावे। जिस को तेजस्वी बालक करना हो, वह घृतयुक्त भात अथवा दही सहत और घृत तीनों भात के साथ मिलाके निम्नलिखित विधि से अन्नप्राशन करावे। अर्थात् पूर्वोक्त पृष्ठ 4-24 में कहे हुए सम्पूर्ण विधि को करके जिस दिन बालक का जन्म हुआ हो, उसी दिन यह संस्कार करे। और निम्न लिखे प्रमाणे भात सिद्ध करे—
ओं प्राणाय त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥1॥
ओम् अपानाय त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥2॥
ओं चक्षुषे त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥3॥
ओं श्रोत्राय त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥4॥
ओम् अग्नये स्विष्टकृते त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥5॥
इन पांच मन्त्रों का यही अभिप्राय है कि चावलों को धो शुद्ध करके अच्छे प्रकार बनाना और पकते हुए भात में यथायोग्य घृत भी डाल देना।
जब अच्छे प्रकार पक जावें तब उतार थोड़े ठण्डे हुए पश्चात् होमस्थाली में—
ओं प्राणाय त्वा जुष्टं निर्वपामि॥1॥
ओम् अपानाय त्वा जुष्टं निर्वपामि॥2॥
ओं चक्षुषे त्वा जुष्टं निर्वपामि॥3॥
ओं श्रोत्राय त्वा जुष्टं निर्वपामि॥4॥
ओम् अग्नये स्विष्टकृते त्वा जुष्टं निर्वपामि॥5॥
इन पांच मन्त्रों से कार्यकर्त्ता यजमान और पुरोहित तथा ऋत्विजों को पात्र में पृथक्-पृथक् देके पृष्ठ 19-20 में लिखे प्रमाणे अग्न्याधान, समिदाधानादि करके प्रथमआघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार मिलके 8 आठ घृत की आहुति देके, पुनः उस पकाये हुए भात की आहुति नीचे लिखे हुए मन्त्रों से देवे—
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु स्वाहा॥
इदं वाचे इदन्न मम॥1॥
वाजो नोऽअद्य प्र सुवाति दानं वाजो देवाँऽ ऋतुभिः कल्पयाति।
वाजो हि मा सर्ववीरं जजान विश्वाऽआशा वाजपतिर्जयेयं
स्वाहा॥ इदं वाचे वाजाय इदन्न मम॥2॥
इन दो मन्त्रों से दो आहुति देवें। तत्पश्चात् उसी भात में और घृत डालके—
ओं प्राणेनान्नमशीय स्वाहा॥ इदं प्राणाय इदन्न मम॥1॥
ओमपानेन गन्धानशीय स्वाहा॥ इदमपानाय इदन्न मम॥2॥
ओं चक्षुषा रूपाण्यशीय स्वाहा॥ इदं चक्षुषे इदन्न मम॥3॥
ओं श्रोत्रेण यशोऽशीय स्वाहा॥ इदं श्रोत्राय इदन्न मम॥4॥
इन मन्त्रों से 4 चार आहुति देके, (ओं यदस्य कर्मणो॰) पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे स्विष्टकृत् आहुति एक देवे। तत्पश्चात् पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे व्याहृति आहुति 4 चार, और पृष्ठ 22-23 में लिखे प्रमाणे (ओं त्वन्नो॰) इत्यादि से 8 आठ आज्याहुति मिलके 12 बारह आहुति देवे।
उस के पीछे आहुति से बचे हुए भात में दही मधु और उस में घी यथायोग्य किञ्चित्-किञ्चित् मिलाके, और सुगन्धियुक्त और भी चावल बनाये हुए थोड़े से मिलाके बालक के रुचि प्रमाणे—
ओम् अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः।
प्रप्र दातारं तारिषऽ ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥
इस मन्त्र को पढ़के थोड़ा-थोड़ा पूर्वोक्त भात बालक के मुख में देवे।
यथारुचि खिला, बालक का मुख धो और अपने हाथ धोके पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे महावामदेव्यगान करके, जो बालक के माता-पिता और अन्य वृद्ध स्त्री-पुरुष आये हों, वे परमात्मा की प्रार्थना करके—
"त्वमन्नपतिरन्नादो वर्धमानो भूयाः॥"
इस वाक्य से बालक को आशीर्वाद देके, पश्चात् संस्कार में आये हुए पुरुषों का सत्कार बालक का पिता और स्त्रियों का सत्कार बालक की माता करके सब को प्रसन्नतापूर्वक विदा करें॥
॥ इत्यन्नप्राशनसंस्कारविधिः समाप्तः॥
No comments:
Post a Comment