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अथ सीमन्तोन्नयनम्
अब तीसरा संस्कार ‘सीमन्तोनयन’ कहते हैं। जिससे गर्भिणी स्त्री का मन सन्तुष्ट आरोग्य गर्भ स्थिर उत्कृष्ट होवे, और प्रतिदिन बढ़ता
जावे। इस में आगे प्रमाण लिखते हैं—
चतुर्थे गर्भमासे सीमन्तोनयनम्॥1॥
आपूर्यमाणपक्षे यदा पुंसा नक्षत्रेण चन्द्रमा युक्तः स्यात्॥2॥
अथास्यै युग्मेन शलालुग्रप्सेन त्र्येण्या च शलल्या त्रिभिश्च
कुशपिञ्जूलैरूर्ध्वं सीमन्तं व्यूहति भूर्भुवः स्वरोमिति त्रिः चतुर्वा॥
—यह आश्वलायनगृह्यसूत्र॥
पुंसवनवत् प्रथमे गर्भे मासे षष्ठेऽष्टमे वा॥
—यह पारस्कर गृह्यसूत्र का प्रमाण॥
इसी प्रकार गोभिलीय और शौनक गृह्यसूत्र में भी लिखा है।
अर्थ—गर्भमास से चौथे महीने में शुक्लपक्ष में जिस दिन मूल आदि पुरुष नक्षत्रों से युक्त चन्द्रमा हो,उसी दिन सीमन्तोनयन संस्कार करें। और पुंसवन संस्कार के तुल्य छठे आठवें महीने में पूर्वोक्त पक्ष नक्षत्रयुक्त चन्द्रमा के दिन सीमन्तोनयन संस्कार करें।
अथ विधि—इस में प्रथम 20 पृष्ठ तक का विधि करके (अदितेऽनुमन्यस्व) इत्यादि पृष्ठ 20 में लिखे प्रमाणे वेदी से पूर्वादि दिशाओं में जल सेचन करके—
ओं देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय।
दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतन्नः पुनातु
वाचस्पतिर्वाचन्नः स्वदतु स्वाहा॥ —य॰अ॰ 30। मं॰ 7॥
इस मन्त्र से कुण्ड के चारों ओर जल-सेचन करके आघारावाज्य- भागाहुति 4 चार, और व्याहृति आहुति 4 चार—दोनों मिलके 8 आठ आहुति पृष्ठ 20-21 में लिखे प्रमाणे करके—
ओं प्रजापतये त्वा जुष्टं निर्वपामि॥
अर्थात् चावल, तिल, मूंग इन तीनों को सम भाग लेके—
ओं प्रजापतये त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥
अर्थात् धोके इन की खिचड़ी बना, उस में पुष्कल घी डालके
निम्नलिखित मन्त्रों से 8 आठ आहुति देवें—
ओं धाता ददातु दाशुषे प्राचीं जीवातुमक्षिताम्।
वयं देवस्य धीमहि सुमतिं वाजिनीवती स्वाहा॥
इदं धात्रे इदन्न मम॥1॥
ओं धाता प्रजानामुत राय ईशे धातेदं विश्वं भुवनं जजान।
धाता कृष्टीरनिमिषाभि चष्टे धात्र इद्धव्यं घृतवज्जुहोत स्वाहा॥
इदं धात्रे इदन्न मम॥2॥
ओं राकामहं सुहवां सुष्टुती हुवे शृणोतु नः सुभगा बोधतु त्मना।
सीव्यत्वपः सूच्याच्छिद्यमानया ददातु वीरं शतदायमुक्थ्यं स्वाहा॥
इदं राकायै इदन्न मम॥3॥
यास्ते राके सुमतयः सुपेशसो याभिर्ददासि दाशुषे वसूनि।
ताभिर्नो अद्य सुमना उपागहि सहस्रपोषं सुभगे रराणा स्वाहा॥
इदं राकायै इदन्न मम॥4॥ —ऋ॰मं॰ 2। सू॰ 32। मं॰ 4, 5॥
नेजमेष परा पत सुपुत्रः पुनरा पत।
अस्यै मे पुत्रकामायै गर्भमा धेहि यः पुमान्त्स्वाहा॥5॥
यथेयं पृथिवी मह्युत्ताना गर्भमा दधे।
एवं त गर्भमा धेहि दशमे मासि सूतवे स्वाहा॥6॥
विष्णोः श्रेष्ठेन रूपेणास्यां नार्यां गवीन्याम्।
पुमांसं पुत्राना धेहि दशमे मासि सूतवे स्वाहा॥7॥
इन 7 सात मन्त्रों से खिचड़ी की सात आहुतिदेके, पुनः (भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्व॰) पृष्ठ 22 में लिखित इस से एक, सब मिलाके 8 आठ आहुति देवें। और पृष्ठ 22 में लिखे प्रमाणे (ओं प्रजापतये॰) मन्त्र से एक भात की, और पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे (ओं यदस्य कर्मणो॰) मन्त्र से एक खिचड़ी की आहुति देवें। तत्पश्चात् (ओं त्वन्नो अग्ने॰) पृष्ठ 22-23 में लिखे प्रमाणे 8 आठ घृत की आहुति और (ओं भूरग्नये॰) पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे 4 चार व्याहृति मन्त्रों से चार आज्याहुति देकर पति और पत्नी एकान्त में जाके उत्तमासन पर बैठ पति पत्नी के पश्चात्=पृष्ठ की ओर बैठ—
ओं सुमित्रिया नऽ आपऽ ओषधयः सन्तु। दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि यञ्च वयं द्विष्मः॥1॥ —य॰अ॰ 6। मं॰ 22॥
मूर्द्धानं दिवोऽअरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृतऽआ जातमग्निम्।
कविं सम्राजमतिथिं जनानामासन्ना पात्रं जनयन्त देवाः॥2॥
—य॰अ॰ 7। मं॰ 24॥
ओम् अयमूर्ज्जावतो वृक्ष ऊर्ज्जीव फलिनी भव।
पर्णं वनस्पतेऽनु त्वाऽनु त्वा सूयतां रयिः॥3॥
ओं येनादितेः सीमानं नयति प्रजापतिर्महते सौभगाय।
तेनाहमस्यै सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टिं कृणोमि॥4॥
ओं राकामहं सुहवां सुष्टुती हुवे शृणोतु नः सुभगा बोधतु त्मना।
सीव्यत्वपः सूच्या छिद्यमानया ददातु वीरं शतदायमुक्थ्यम्॥5॥
ओं यास्ते राके सुमतयः सुपेशसो याभिर्ददासि दाशुषे वसूनि।
ताभिर्नो अद्य सुमना उपागहि सहस्रपोषं सुभगे रराणा॥6॥
किं पश्यसि प्रजां पशून्त्सौभाग्यं मह्यं दीर्घायुष्ट्वं पत्युः॥7॥
इन मन्त्रों को पढ़के पति अपने हाथ से स्वपत्नी के केशों में सुगन्ध तेल डाल, कंघे से सुधार, हाथ में उदुम्बर अथवा अर्जुन वृक्ष की शलाका वा कुशा की मृदु छीपी वा शाही पशु के कांटे से अपनी पत्नी के केशों को स्वच्छ कर, पट्टी निकाल और पीछे की ओर जूड़ा सुन्दर बांधकर यज्ञशाला में आवें। उस समय वीणा आदि बाजे बजवावें।
तत्पश्चात् पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे सामवेद का गान करें। पश्चात्—
ओं सोम एव नो राजेमा मानुषीः प्रजाः।
अविमुक्तचक्र आसीरंस्तीरे तुभ्यम् असौ *॥
(*यहां किसी नदी का नामोच्चारण करें।)
आरम्भ में इस मन्त्र का गान करके, पश्चात् अन्य मन्त्रों का गान करें। तत्पश्चात् पूर्व आहुतियों के देने से बची हुई खिचड़ी में पुष्कल घृत डालके गर्भिणी स्त्री अपना प्रतिबिम्ब उस घी में देखे। उस समय पति स्त्री से पूछे—“किं पश्यसि”? स्त्री उत्तर देवे—“प्रजां पश्यामि”।
तत्पश्चात् एकान्त में वृद्ध कुलीन सौभाग्यवती पुत्रवती गर्भिणी अपने कुल की और ब्राह्मणों की स्त्रियां बैठें। प्रसन्नवदन और प्रसन्नता की बातें करें। और वह गर्भिणी स्त्री उस खिचड़ी को खावे। और वे वृद्ध समीप बैठी हुईं उत्तम स्त्री लोग ऐसा आशीर्वाद देवें—
ओं वीरसूस्त्वं भव, जीवसूस्त्वं भव, जीवपत्नी त्वं भव॥
ऐसे शुभ माङ्गलिक वचन बोलें। तत्पश्चात् संस्कार में आये हुए मनुष्यों का यथायोग्य सत्कार करके स्त्री स्त्रियों और पुरुष पुरुषों को विदा करें॥
॥ इति सीमन्तोन्नयनसंस्कारविधिः समाप्तः॥
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