Thursday, March 21, 2019

ग्रहों के खराब होने के लक्षण सिर्फ दो मिनिट में जानिए आपका कोनसा ग्रह खराब है।

Astrology the father of science
मैं ज्योतिष आचार्य विशाल देवमुरारी आपका हार्दिक स्वागत करता हूं। बगैर जन्मकुंली के केसे जाने आपका कोनसा ग्रह खराब है?
नौ ग्रह खराब होने के लक्षण
१: सूर्य
सामाजिक अपयश, पिता के साथ कलह या वैचारिक मतभेद, आंख, हृदय या पेट का कोई रोग होना इस बात को दर्शाता है कि जातक की कुंडली में सूर्य अशुभ स्थिति में है। 
२: चन्द्र
जीवन में असंतुष्ट रहना, कमजोर चंद्रमा घर में पानी के नल्कों या कुंओं का सूख जाना, पालतू दुधारू पशु की मृत्यु हो जाना, माता को कष्ट होना, मन में बार-बार आत्महत्या करने के विचारों का जन्म लेना भी कमजोर चंद्रमा की ओर इशारा करता है।
३: मंगल
मंगल आए दिन कोई ना कोई दुर्घटना होना, घर के बिजली के समान जल्दी खराब हो जाना, विशेषकर जिस कमरे में व्यक्ति रहता है वहां मौजूद बिजली के उपकरणों का कम समय में ही खराब हो जाना, मंगल दोष की वजह से होता है। मंगल के दोषी होने पर रक्त समस्या, भाई से विवाद और अत्याधिक क्रोध जैसी स्थिति जन्म लेती है। 
४:बुध 
बुध ज्योतिष विद्या में बुध को व्यापार और स्वास्थ्य का कारक बताया गया है। जिस व्यक्ति की कुंडली में बुध अशुभ या कमजोर स्थिति में होता है उस व्यक्ति के दांत कमजोर रहते हैं। उसकी सूंघने की शक्ति कम हो जाती है और एक समय के बाद उसे गुप्त रोग होने की संभावना भी प्रबल हो जाती है।
५: गुरु


बृहस्पति अगर किसी विद्यार्थी को पढ़ाई में समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, किसी के असमय बाल झड़ने शुरू हो गए हैं, अपमान का शिकार होना पड़ रहा है, व्यापार की स्थिति बदतर होती जा रही है, घर में कलह का माहौल बन गया है तो निश्चित तौर पर यह कमजोर बृहस्पति की ओर इशारा करता है। 
६:शुक्र 
ज्योतिष के अनुसार शुक्र ग्रह मौज-मस्ती, भोग-विलास और आलीशान जीवन व्यतीत करवाता है। लेकिन अगर किसी व्यक्ति की कुंडली में शुक्र सही नहीं है तो उस व्यक्ति के मन में भटकाव अवश्य रहेगा। वह अपने हाथ से धन का नाश करता है, उसे चर्म रोग और स्वप्न दोष होने की संभावना रहती है। 
७:शनि 
शनि धीमी गति का ग्रह है, अगर किसी की कुंडली में शनि पीड़ित या कमजोर होता है तो उस व्यक्ति का हर कार्य बहुत आराम से होता है। अगर आपके मकान का कोई हिस्सा गिर गया है या टूट गया है तो यह कमजोर शनि की ओर इशारा करता है। वाहन से दुर्घटना या धड़ के निचले हिस्से, विषेकर जांघों के हिस्से में परेशानी कमजोर शनि की वजह से होती है।
८ :राहु 
राहु शक, संदेह, मानसिक परेशानियां, आपसी तालमेल में रुकावट, बात-बात पर क्रोधित हो जाना, गुस्से एमं अपशब्द या गाली-गलौज करना, ये सब राहु के परिणाम हैं। कुंडली में राहु के अशुभ होने से हाथ के नाखून टूटने लगते हैं और पेट से संबंधित परेशानियां लग जाती हैं वाहन से दुर्घटना, मस्तिष्क की पीड़ा, दिमागी संतुलन बिगड़ जाना, भोजन या किसी खाद्य पदार्थ में अकसर बाल दिखना, सामाजिक मानहानि होना, ये सभी राहु ग्रह के दुष्प्रभाव हैं।
९: केतु
 जब किसी व्यक्ति की कुंडली में केतु अशुभ फलदायी होता है तो उसे आर्थिक नुकसान के साथ-साथ चर्म रोग भी हो सकता है। वह व्यक्ति खुद अपने लिए ही गलत धारण बना लेता है जो उसे नुकसान पहुंचाती है।

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विशाल देवमुरारी
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Tuesday, March 19, 2019

निष्क्रमण संस्कार


[6]
अथ निष्क्रमणसंस्कारविधिं वक्ष्यामः
‘निष्क्रमण’ संस्कार उस को कहते हैं कि जो बालक को घर से जहां का वायुस्थान शुद्ध हो, वहां भ्रमण कराना होता है। उस का समय जब अच्छा देखें तभी बालक को बाहर घुमावें। अथवा चौथे मास में तो अवश्य भ्रमण करावें। इस में प्रमाण—
चतुर्थे मासि निष्क्रमणिका सूर्यमुदीक्षयति—तच्चक्षुरिति॥
—यह आश्वलायन गृह्यसूत्र का वचन है॥
जननाद्यस्तृतीयो ज्यौत्स्नस्तस्य तृतीयायाम्॥
—यह पारस्कर गृह्यसूत्र में भी है॥
अर्थ—निष्क्रमण संस्कार के काल के दो भेद हैं—एक बालक के जन्म के पश्चात् तीसरे शुक्लपक्ष की तृतीया, और दूसरा चौथे महीने में जिस तिथि में बालक का जन्म हुआ हो, उस तिथि में यह संस्कार करे।
उस संस्कार के दिन प्रातःकाल सूर्योदय के पश्चात् बालक को शुद्ध जल से स्नान करा, शुद्ध सुन्दर वस्त्र पहिनावे। पश्चात् बालक को यज्ञशाला में बालक की माता ले आके पति के दक्षिण पार्श्व में होकर, पति के सामने आकर, बालक का मस्तक उत्तर और छाती ऊपर अर्थात् चित्ता रखके पति के हाथ में देवे। पुनः पति के पीछे की ओर घूमके बांयें पार्श्व में पश्चिमाभिमुख खड़ी रहे।
ओं यत्ते सुसीमे हृदयं हितमन्तः प्रजापतौ।
वेदाहं मन्ये तद् ब्रह्म माहं पौत्रमघं निगाम्॥1॥
ओं यत् पृथिव्या अनामृतं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्।
वेदामृतस्याहं  नाम   माहं   पौत्रमघं रिषम्॥2॥
ओम् इन्द्राग्नी शर्म यच्छतं प्रजायै मे प्रजापती।
यथायं न     प्रमीयेत      पुत्रो   जनित्र्या अधि॥3॥
इन तीन मन्त्रों से परमेश्वर की आराधना करके पृष्ठ 4-23 में लिखे प्रमाणे परमेश्वरोपासना, स्वस्तिवाचन, शान्तिकरण आदि और सामान्यप्रकरणोक्त समस्त विधि कर और पुत्र को देखके इन निम्नलिखित तीन मन्त्रों से पुत्र के शिर को स्पर्श करे—
ओम् अङ्गादङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे।
आत्मा वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम्॥1॥
ओं प्रजापतेष्ट्वा हिङकारेणावजिघ्रामि।
सहस्रायुषाऽसौ जीव शरदः शतम्॥2॥
गवां   त्वा   हिङकारेणावजिघ्रामि।
सहस्रायुषाऽसौ जीव शरदः शतम्॥3॥
तथा निम्नलिखित मन्त्र बालक के दक्षिण कान में जपे—
अस्मे प्र यन्धि मघवन्नृजीषिन्निन्द्र रायो विश्ववारस्य भूरेः।
अस्मे शतं शरदो जीवसे धा अस्मे वीराञ्छश्वत इन्द्र शिप्रिन्॥1॥
इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चित्तिं दक्षस्य सुभगत्वमस्मे।
पोषं रयीणामरिष्टिं तनूनां स्वाद्मानं वाचः सुदिनत्वमह्नाम्॥2॥
इस मन्त्र को वाम कान में जपके पत्नी की गोद में उत्तर दिशा में शिर और दक्षिण दिशा में पग करके बालक को देवे। और मौन करके स्त्री के शिर का स्पर्श करे। तत्पश्चात् आनन्दपूर्वक उठके बालक को सूर्य का दर्शन करावे। और निम्नलिखित मन्त्र वहां बोले—
ओं तचक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥
इस मन्त्र को बोलके थोड़ा सा शुद्ध वायु में भ्रमण कराके यज्ञशाला में लावे। सब लोग—
"त्वं जीवं शरदः शतं वर्धमानः"॥
इस वचन को बोलके आशीर्वाद देवें।
तत्पश्चात् बालक के माता और पिता संस्कार में आये हुए स्त्रियों और पुरुषों का यथायोग्य सत्कार करके विदा करें। तत्पश्चात् जब रात्रि में चन्द्रमा प्रकाशमान हो, तब बालक की माता लड़के को शुद्ध वस्त्र पहिना दाहिनी ओर से आगे आके पिता के हाथ में बालक को उत्तर की ओर शिर और दक्षिण की ओर पग करके देवे। और बालक की माता दाहिनी ओर से लौट कर बाईं ओर आ, अञ्जलि में जल भरके चन्द्रमा के सम्मुख खड़ी रहके—
ओं यददश्चन्द्रमसि कृष्णं पृथिव्या हृदयं श्रितम्।
तदहं विद्वांस्तत् पश्यन् माहं पौत्रमघं रुदम्॥
इस मन्त्र से परमात्मा की स्तुति करके जल को पृथिवी पर छोड़ देवे।
तत्पश्चात् बालक की माता पुनः पति के पृष्ठ की ओर से पति के दाहिने पार्श्व से सम्मुख आके, पति से पुत्र को लेके, पुनः पति के पीछे होकर बाईं ओर बालक का उत्तर की ओर शिर दक्षिण की ओर पग रखके खड़ी रहे और बालक का पिता जल की अञ्जलि भर (ओं यददश्च॰) इसी मन्त्र से परमेश्वर की प्रार्थना करके जल को पृथ्वी पर छोड़के दोनों प्रसन्न होकर घर में आवें॥

॥ इति निष्क्रमणसंस्कारविधिः समाप्तः॥


अन्नप्राशन संस्कार


[7]
अथान्नप्राशनविधिं वक्ष्यामः
‘अन्नप्राशन’ संस्कार तभी करे, जब बालक की शक्ति अन्न पचाने योग्य होवे। इस में आश्वलायन गृह्यसूत्र का प्रमाण—
षष्ठे मास्यन्नप्राशनम्॥1॥
घृतौदनं तेजस्कामः॥2॥
दधिमधुघृतमिश्रितमन्नं प्राशयेत्॥3॥
—इसी प्रकार पारस्करगृह्यसूत्रादि में भी है॥
छठे महीने बालक को अन्नप्राशन करावे। जिस को तेजस्वी बालक करना हो, वह घृतयुक्त भात अथवा दही सहत और घृत तीनों भात के साथ मिलाके निम्नलिखित विधि से अन्नप्राशन करावे। अर्थात् पूर्वोक्त पृष्ठ 4-24 में कहे हुए सम्पूर्ण विधि को करके जिस दिन बालक का जन्म हुआ हो, उसी दिन यह संस्कार करे। और निम्न लिखे प्रमाणे भात सिद्ध करे—
ओं प्राणाय त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥1॥
ओम् अपानाय त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥2॥
ओं चक्षुषे त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥3॥
ओं श्रोत्राय त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥4॥
ओम् अग्नये स्विष्टकृते त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥5॥
इन पांच मन्त्रों का यही अभिप्राय है कि चावलों को धो शुद्ध करके अच्छे प्रकार बनाना और पकते हुए भात में यथायोग्य घृत भी डाल देना।
जब अच्छे प्रकार पक जावें तब उतार थोड़े ठण्डे हुए पश्चात् होमस्थाली में—
ओं प्राणाय त्वा जुष्टं निर्वपामि॥1॥
ओम् अपानाय त्वा जुष्टं निर्वपामि॥2॥
ओं चक्षुषे त्वा जुष्टं निर्वपामि॥3॥
ओं श्रोत्राय त्वा जुष्टं निर्वपामि॥4॥
ओम् अग्नये स्विष्टकृते त्वा जुष्टं निर्वपामि॥5॥
इन पांच मन्त्रों से कार्यकर्त्ता यजमान और पुरोहित तथा ऋत्विजों को पात्र में पृथक्-पृथक् देके पृष्ठ 19-20 में लिखे प्रमाणे अग्न्याधान, समिदाधानादि करके प्रथमआघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार मिलके 8 आठ घृत की आहुति देके, पुनः उस पकाये हुए भात की आहुति नीचे लिखे हुए मन्त्रों से देवे—
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु स्वाहा॥
इदं वाचे इदन्न मम॥1॥
वाजो नोऽअद्य प्र सुवाति दानं वाजो देवाँऽ ऋतुभिः कल्पयाति।
वाजो हि मा सर्ववीरं जजान विश्वाऽआशा वाजपतिर्जयेयं
स्वाहा॥ इदं वाचे वाजाय इदन्न मम॥2॥
इन दो मन्त्रों से दो आहुति देवें। तत्पश्चात् उसी भात में और घृत डालके—
ओं प्राणेनान्नमशीय स्वाहा॥ इदं प्राणाय इदन्न मम॥1॥
ओमपानेन गन्धानशीय स्वाहा॥ इदमपानाय इदन्न मम॥2॥
ओं चक्षुषा रूपाण्यशीय स्वाहा॥ इदं चक्षुषे इदन्न मम॥3॥
ओं श्रोत्रेण यशोऽशीय स्वाहा॥ इदं श्रोत्राय इदन्न मम॥4॥
इन मन्त्रों से 4 चार आहुति देके, (ओं यदस्य कर्मणो॰) पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे स्विष्टकृत् आहुति एक देवे। तत्पश्चात् पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे व्याहृति आहुति 4 चार, और पृष्ठ 22-23 में लिखे प्रमाणे (ओं त्वन्नो॰) इत्यादि से 8 आठ आज्याहुति मिलके 12 बारह आहुति देवे।
उस के पीछे आहुति से बचे हुए भात में दही मधु और उस में घी यथायोग्य किञ्चित्-किञ्चित् मिलाके, और सुगन्धियुक्त और भी चावल बनाये हुए थोड़े से मिलाके बालक के रुचि प्रमाणे—
ओम् अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः।
प्रप्र दातारं तारिषऽ ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥
इस मन्त्र को पढ़के थोड़ा-थोड़ा पूर्वोक्त भात बालक के मुख में देवे।
यथारुचि खिला, बालक का मुख धो और अपने हाथ धोके पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे महावामदेव्यगान करके, जो बालक के माता-पिता और अन्य वृद्ध स्त्री-पुरुष आये हों, वे परमात्मा की प्रार्थना करके—
"त्वमन्नपतिरन्नादो वर्धमानो भूयाः॥"
इस वाक्य से बालक को आशीर्वाद देके, पश्चात् संस्कार में आये हुए पुरुषों का सत्कार बालक का पिता और स्त्रियों का सत्कार बालक की माता करके सब को प्रसन्नतापूर्वक विदा करें॥
॥ इत्यन्नप्राशनसंस्कारविधिः समाप्तः॥


पुंसवन संस्कार


[2]
अथ पुंसवनम्
‘पुंसवन’ संस्कार का समय गर्भस्थिति-ज्ञान हुए समय से दूसरे वा तीसरे महीने में है। उसी समय पुंसवन संस्कार करना चाहिये, जिससे पुरुषत्व अर्थात् वीर्य का लाभ होवे। यावत् बालक के जन्म हुए पश्चात् दो महीने न बीत जावें, तब तक पुरुष ब्रह्मचारी रहकर स्वप्न में भी वीर्य को नष्ट न होने देवे। भोजन-छादन शयन-जागरणादि व्यवहार उसी प्रकार से करे, जिस से वीर्य स्थिर रहे, और दूसरा सन्तान भी उत्तम होवे।
अत्र प्रमाणानि
पुमांसौ मित्रावरुणौ    पुमांसावश्विनावुभौ।
पुमानग्निश्च वायुश्च पुमान् गर्भस्तवोदरे स्वाहा॥1॥
पुमानग्निः पुमानिन्द्रः पुमान् देवो बृहस्पतिः।
पुमांसं पुत्रं विन्दस्व तं पुमाननु जायताम्॥2॥
—सामवेदे॥
शमीमश्वत्थ   आरूढस्तत्र पुंसवनं    वृतम्।
तद्वै पुत्रस्य वेदनं तत् स्त्रीष्वा भरामसि॥1॥
पुंसि वै रेतो भवति तत् स्त्रियामनु षिच्यते।
तद्वै पुत्रस्य वेदनं तत् प्रजापतिरब्रवीत्॥2॥
प्रजापतिरनुमतिः     सिनीवाल्यद्वचीक्लृपत्।
स्त्रैषूयमन्यत्र  दधत्  पुमांसमु      दधदिह॥3॥
—अथर्व॰ का॰ 6। सू॰ 11॥
इन मन्त्रों का यही अभिप्राय है कि पुरुष को वीर्यवान् होना चाहिये। इसमें आश्वलायन गृह्यसूत्र का प्रमाण—
अथास्यै मण्डलागारच्छायायां दक्षिणस्यां नासिकायामजीतामोषधीं नस्तः करोति॥1॥
प्रजावज्जीवपुत्राभ्यां हैके॥2॥
गर्भ के दूसरे वा तीसरे महीने में वटवृक्ष की जटा वा उसकी पत्ती लेके स्त्री के दक्षिण नासापुट से सुंघावे। और कुछ अन्य पुष्ट अर्थात् गुडूच जो गिलोय वा ब्राह्मी ओषधि खिलावे।
ऐसा ही पारस्कर गृह्यसूत्र का प्रमाण है—
अथ पुंसवनं पुरा स्यन्दत इति मासे द्वितीये तृतीये वा॥
इस के अनन्तर ‘पुंसवन’ उस को कहते हैं, जो पूर्व ऋतुदान देकर गर्भस्थिति से दूसरे वा तीसरे महीने में पुंसवन संस्कार किया जाता है।
इसी प्रकार गोभिलीय और शौनक गृह्यसूत्रों में भी लिखा है।
अथ क्रियारम्भ—पृष्ठ 4 से 11वें पृष्ठ के शान्तिकरण पर्यन्त कहे प्रमाणे (विश्वानि देव॰)इत्यादि चारों वेदों के मन्त्रों से यजमान और पुरोहितादि ईश्वरोपासना करें। और जितने पुरुष वहां उपस्थित हों, वे भी परमेश्वरोपासना में चित्त लगावें और पृष्ठ 7-9 में कहे प्रमाणे स्वस्तिवाचनतथा पृष्ठ 9-11 में लिखे प्रमाणे शान्तिकरणकरके, पृष्ठ 12 में लिखे प्रमाणे यज्ञदेश, यज्ञशाला तथा पृष्ठ 12-13 में लिखे प्रमाणे यज्ञकुण्ड, यज्ञसमिधा, होम के द्रव्य और स्थालीपाक आदि करके और पृष्ठ 18-20 में लिखे प्रमाणे (अयन्त इध्म॰) इत्यादि, (ओम् अदिते॰) इत्यादि 4 चार मन्त्रोक्त कर्म और आघारावाज्यभागाहुति 4 चार तथा व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 21 में (ओं प्रजापतये स्वाहा), पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे (ओं यदस्य कर्मणो॰) दो आहुति देकर नीचे लिखे हुए दोनों मन्त्रों से 2 दो आहुति घृत की देवें—
ओम् आ ते गर्भो योनिमेतु पुमान् बाण इवेषुधिम्।
आ    वीरो   जायतां पुत्रस्ते दशमास्यः    स्वाहा॥1॥
ओम् अग्निरैतु प्रथमो देवतानां सोऽस्यै प्रजां मुञ्चतु मृत्युपाशात्।
तदयं राजा वरुणोऽनुमन्यतां यथेयं स्त्री पौत्रमघं न रोदात्
स्वाहा॥2॥
इन दोनों मन्त्रों को बोलके दो आहुति किये पश्चात् एकान्त में  पत्नी के हृदय पर हाथ धरके यह निम्नलिखित मन्त्र पति बोले—
ओं यत्ते सुसीमे हृदये हितमन्तः प्रजापतौ।
मन्येऽहं मां तद्विद्वांसं माहं पौत्रमघं नियाम्॥
तत्पश्चात् पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे सामवेद आर्चिक और महावामदेव्यगान गाके जो-जो पुरुष वा स्त्री संस्कार-समय पर आये हों, उन को विदा कर दे।
पुनः वटवृक्ष के कोमल कूपल और गिलोय को महीन बांट, कपड़े में छान, गर्भिणी स्त्री के दक्षिण नासापुट में सुंघावे।
तत्पश्चात्—
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥2॥
—यजुः॰ अ॰ 13। मं॰ 4॥
अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तताग्रे।
तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥2॥
—यजुः॰अ॰ 31। मं॰ 17॥
इन 2 दो मन्त्रों को बोलके पति अपनी गर्भिणी पत्नी के गर्भाशय पर हाथ धरके यह मन्त्र बोले—
सुपर्णोऽसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो गायत्रं चक्षुर्बृहद्रथन्तरे पक्षौ।
स्तोमऽ आत्मा छन्दांस्यङ्गानि यजूंषि नाम।
साम ते तनूर्वामदेव्यं यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः।
सुपर्णोऽसि गरुत्मान् दिवं गच्छ स्वः पत॥
—यजुः॰ अ॰ 12। मं॰ 4॥
इस के पश्चात् स्त्री सुनियम युक्ताहार-विहार करे। विशेषकर गिलोय ब्राह्मी ओषधि और सुंठी को दूध के साथ थोड़ी-थोड़ी खाया करे और अधिक शयन और अधिक भाषण, अधिक खारा, खट्टा, तीखा, कड़वा, रेचक हरड़े आदि न खावे, सूक्ष्म आहार करे। क्रोध, द्वेष, लोभादि दोषों में न फंसे। चित्त को सदा प्रसन्न रखे—इत्यादि शुभाचरण करे॥

॥ इति पुंसवनसंस्कारविधिः समाप्तः॥


कर्णवेध संस्कार


[9]
अथ कर्णवेधसंस्कारविधिं वक्ष्यामः
अत्र प्रमाणम्—
कर्णवेधो वर्षे तृतीये पञ्चमे वा॥
—यह आश्वलायन गृह्यसूत्र का वचन है॥
बालक के कर्ण वा नासिका के वेध का समय जन्म से तीसरे वा पांचवें वर्ष का उचित है।
जो दिन कर्ण वा नासिका के वेध का ठहराया हो, उसी दिन बालक को प्रातःकाल शुद्ध जल से स्नान और वस्त्रालङ्कार धारण कराके बालक की माता यज्ञशाला में लावे। पृष्ठ 4-24 तक लिखा हुआ सब विधि करे और उस बालक के आगे कुछ खाने का पदार्थ वा खिलौना धरके—
ओं भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥
इस मन्त्र को पढ़के चरक सुश्रुत वैद्यक-ग्रन्थों के जाननेवाले सद्वैद्य के हाथ से कर्ण वा नासिका वेध करावें कि जो नाड़ी आदि को बचाके वेध कर सके। पूर्वोक्त मन्त्र से दक्षिण कान। और—
ओं वक्ष्यन्ती वेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियं सखायं परिषस्वजाना।
योषेव शिङ्क्ते वितताधि धन्वञ्ज्या इयं समने पारयन्ती॥
इस मन्त्र को पढ़के दूसरे वाम कर्ण का वेध करे। तत्पश्चात् वही वैद्य उन छिद्रों में शलाका रक्खे कि जिस से छिद्र पूर न जावें। और ऐसी ओषधि उस पर लगावे, जिस से कान पकें नहीं और शीघ्र अच्छे हो जावें॥

॥ इति कर्णवेधसंस्कारविधिः समाप्तः॥


चूडाकर्म संस्कार


[8]
अथ चूडाकर्मसंस्कारविधिं वक्ष्यामः
यह आठवाँ संस्कार ‘चूडाकर्म’ है, जिस को केशछेदन-संस्कार भी कहते हैं। इस में आश्वलायन गृह्यसूत्र का मत ऐसा है—
तृतीये वर्षे चौलम्॥1॥
उत्तरतोऽग्नेर्व्रीहियवमाषतिलानां शरावाणि निदधाति॥2॥
इसी प्रकार पारस्कर गृह्यसूत्रादि में भी है—
सांवत्सरिकस्य चूडाकरणम्॥
इसी प्रकार गोभिलीय गृह्यसूत्र का भी मत है॥
यह चूडाकर्म अर्थात् मुण्डन बालक के जन्म के तीसरे वर्ष वा एक वर्ष में करना। उत्तरायणकाल शुक्लपक्ष में जिस दिन आनन्दमङ्गल हो, उस दिन यह संस्कार करे।
विधि—आरम्भ में पृष्ठ 4-24 में लिखित विधि करके चार शरावे ले। एक में चावल, दूसरे में यव, तीसरे में उर्द और चौथे शरावे में तिल भरके वेदी के उत्तर में धर देवे। धरके पृष्ठ 20 में लिखे प्रमाणे "ओम् अदितेऽनुमन्यस्व" इत्यादि तीन मन्त्रों से कुण्ड के तीन बाजू, और पृष्ठ 20 में लिखे प्रमाणे ‘ओं देव सवितः प्रसुव॰’ इस मन्त्र से कुण्ड के चारों ओर जल छिटकाके, पूर्व पृष्ठ 19 में लिखित अग्न्याधान समिदाधान कर अग्नि को प्रदीप्त करके, जो समिधा प्रदीप्त हुई हो उस पर लक्ष्य देकर पृष्ठ 20-21 में लिखे प्रमाणे आघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 22-23 में लिखे प्रमाणे आठ आज्याहुति, सब मिलके 16 सोलह आहुति देके, पृष्ठ 21-22 में लिखे प्रमाणे "ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि॰" इत्यादि मन्त्रों से चार आज्याहुति प्रधान होम की देके, पश्चात् पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे स्विष्टकृत् मन्त्र से एक आहुति मिलके पाँच घृत की आहुति देवें।
इतनी क्रिया करके कर्मकर्त्ता परमात्मा का ध्यान करके नाई की ओर प्रथम देखके—
ओम् आयमगन्त्सविता क्षुरेणोष्णेन वाय उदकेनेहि।
आदित्या रुद्रा वसव उन्दन्तु सचेतसः सोमस्य राज्ञो वपत प्रचेतसः॥
—अथर्व॰ कां॰ 6। सू॰ 68॥
इस मन्त्र का जप करके, पिता बालक के पृष्ठ-भाग में बैठके किञ्चित् उष्ण और किञ्चित् ठण्डा जल दोनों पात्रों में लेके—
ओम् उष्णेन वाय उदकेनैधि॥
इस मन्त्र को बोलके दोनों पात्र का जल एक पात्र में मिला देवे।
पश्चात् थोड़ा जल, थोड़ा माखन अथवा दही की मलाई लेके—
ओम् अदितिः श्मश्रु वपत्वाप उन्दन्तु वर्चसा।
चिकित्सतु    प्रजापतिर्दीर्घायुत्वाय   चक्षसे  ॥1॥
—अथर्व॰कां॰ 6। सू॰ 68॥
ओं सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तनूं
दीर्घायुत्वाय वर्चसे॥2॥
इन मन्त्रों को बोलके, बालक के शिर के बालों में तीन वार हाथ फेरके केशों को भिगोवे।तत्पश्चात् कङ्घा लेके केशों को सुधार के इकट्ठा करे, अर्थात् बिखरे न रहें। तत्पश्चात्—
ओम् ओषधे त्रायस्वैनम्॥1॥
इस मन्त्र को बोलके तीन दर्भ लेके दाहिनी बाजू के केशों के समूह को हाथ से दबाके—
ओं विष्णोर्दंष्ट्रोऽसि॥
इस मन्त्र से छुरे की ओर देखके—
ओं शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽ अस्तु मा मा हिंसीः॥
इस मन्त्र को बोलके छुरे को दहिने हाथ में लेवे। तत्पश्चात्—
ओं स्वधिते मैनं हिंसीः॥1॥
ओं निवर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥2॥
इन दो मन्त्रों को बोलके उस छुरे और उन कुशाओं को केशों के समीप ले जाके—
1—ओं येनावपत् सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्।
       तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य गोमानश्ववानयमस्तु प्रजावान्॥
—अथर्व॰ का॰ 6। सू॰ 68॥
इस मन्त्र को बोलके कुशासहित उन केशों को काटे *
[*केशछेदन की रीति ऐसी है कि दर्भ और केश दोनों युक्ति से पकड़ कर अर्थात् दोनों ओर से पकड़के बीच में से केशों को छुरे से काटे। यदि छुरे के बदले कैंची से काटे तो भी ठीक है।]
और वे काटे हुए केश और दर्भ शमीवृक्ष के पत्रसहित, अर्थात् यहां शमीवृक्ष के पत्र भी प्रथम से रखने चाहिएँ, उन सब को लड़के का पिता और लड़के की मां एक शरावा में रक्खें और कोई केश छेदन करते समय उड़ा हो, उस को गोबर से उठाके शरावा में अथवा उस के पास रखें। तत्पश्चात् इसी प्रकार—
2—ओं येन धाता बृहस्पतेरग्नेरिन्द्रस्य चायुषेऽवपत्।
       तेन त आयुषे वपामि सुश्लोक्याय स्वस्तये॥
इस मन्त्र से दूसरी वार केश का समूह दूसरी ओर का काटके उसी प्रकार शरावा में रखे। तत्पश्चात्—
3—ओं येन भूयश्च रात्र्यां ज्योक् च पश्याति सूर्यम्।
       तेन त आयुषे वपामि सुश्लोक्याय स्वस्तये॥
इस मन्त्र से तीसरी वार उसी प्रकार केशसमूह को काटके उपरि उक्त तीन मन्त्रों—अर्थात् (ओं येनावपत्॰), (ओं येन धाता॰), (ओं येन भूयश्च॰), और—
4—ओं येन पूषा बृहस्पतेर्वायोरिन्द्रस्य चावपत्।
       तेन ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय दीर्घायुष्ट्वाय वर्चसे॥
इस एक, इन चार मन्त्रों को बोलके चौथी वार इसी प्रकार केशों के समूह को काटे। अर्थात् प्रथम दक्षिण बाजू के केश काटने का विधि पूर्ण हुए पश्चात् बायीं ओर के केश काटने का विधि करे। तत्पश्चात् उस के पीछे आगे के केश काटे।
परन्तु चौथी वार काटने में "येन पूषा॰" इस मन्त्र के बदले—
ओं येन भूरिशरादिवं ज्योक् च पश्चाद्धि सूर्यम्।
तने   ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय सुश्लोक्याय स्वस्तये॥
यह मन्त्र बोल चौथी वार छेदन करे। तत्पश्चात्—
ओं त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्।
यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽ अस्तु त्र्यायुषम्॥
इस एक मन्त्र को बोलके शिर के पीछे के केश एक वार काटके इसी (ओं त्र्यायुषं॰) मन्त्र को बोलते जाना और ओंधे हाथ के पृष्ठ से बालक के
शिर पर हाथ फेरके मन्त्र पूरा हुए पश्चात् छुरा नाई के हाथ में देके—
ओं यत् क्षुरेण मरयता सुपेशसा वप्ता वपसि केशान्।
शुन्धि शिरो मास्यायुः प्रमोषीः॥
इस मन्त्र को बोलके नापित से पथरी पर छुरे की धार तेज कराके, नापित से बालक का पिता कहे कि—‘इस शीतोष्ण जल से बालक का शिर अच्छे प्रकार कोमल हाथ से भिगो। सावधानी और कोमल हाथ से क्षौर कर। कहीं छुरा न लगने पावे’। इतना कहके कुण्ड से उत्तर दिशा में नापित को ले जा, उसके सम्मुख बालक को पूर्वाभिमुख बैठाके,जितने केश रखने हों, उतने ही केश रखे। परन्तु पांचों ओर थोड़ा-थोड़ा केश रखावे, अथवा किसी एक ओर रखे। अथवा एक वार सब कटवा देवे, पश्चात् दूसरी वार के केश रखने अच्छे होते हैं।
जब क्षौर हो चुके, तब कुण्ड के पास पड़ा वा धरा हुआ देने के योग्य पदार्थ वा शरावा आदि कि जिनमें प्रथम अन्न भरा था, नापित को देवे और मुण्डन किये हुए सब केश दर्भ शमीपत्र और गोबर नाई को देवे। यथायोग्य उस को धन वा वस्त्र भी देवे और नाई केश, दर्भ, शमीपत्र और गोबर को जग्ल में ले जा, गढ़ा खोदके उस में सब डाल ऊपर से मिट्टी से दबा देवे। अथवा गोशाला, नदी वा तालाब के किनारे पर उसी प्रकार केशादि को गाड़ देवे, ऐसा नापित से कह दे। अथवा किसी को साथ भेज देवे, वह उस से उक्त प्रकार करवा लेवे।
क्षौर हुए पश्चात् मक्खन अथवा दही की मलाई हाथ में लगा, बालक के शिर पर लगाके स्नान करा, उत्तम वस्त्र पहिनाके, बालक को पिता अपने पास ले शुभासन पर पूर्वाभिमुख बैठके, पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे सामवेद का महावामदेव्यगान करके, बालक की माता स्त्रियों और बालक का पिता पुरुषों का यथायोग्य सत्कार करके विदा
करें और जाते समय सब लोग तथा बालक के माता-पिता परमेश्वर का ध्यान करके—
"ओं त्वं जीव शरदः शतं वर्धमानः"॥
इस मन्त्र को बोल बालक को आशीर्वाद देके अपने-अपने घर को पधारें। और बालक के माता-पिता प्रसन्न होकर बालक को प्रसन्न रक्खें॥

॥ इति चूडाकर्मसंस्कारविधिः समाप्तः॥


[8]
अथ चूडाकर्मसंस्कारविधिं वक्ष्यामः
यह आठवाँ संस्कार ‘चूडाकर्म’ है, जिस को केशछेदन-संस्कार भी कहते हैं। इस में आश्वलायन गृह्यसूत्र का मत ऐसा है—
तृतीये वर्षे चौलम्॥1॥
उत्तरतोऽग्नेर्व्रीहियवमाषतिलानां शरावाणि निदधाति॥2॥
इसी प्रकार पारस्कर गृह्यसूत्रादि में भी है—
सांवत्सरिकस्य चूडाकरणम्॥
इसी प्रकार गोभिलीय गृह्यसूत्र का भी मत है॥
यह चूडाकर्म अर्थात् मुण्डन बालक के जन्म के तीसरे वर्ष वा एक वर्ष में करना। उत्तरायणकाल शुक्लपक्ष में जिस दिन आनन्दमङ्गल हो, उस दिन यह संस्कार करे।
विधि—आरम्भ में पृष्ठ 4-24 में लिखित विधि करके चार शरावे ले। एक में चावल, दूसरे में यव, तीसरे में उर्द और चौथे शरावे में तिल भरके वेदी के उत्तर में धर देवे। धरके पृष्ठ 20 में लिखे प्रमाणे "ओम् अदितेऽनुमन्यस्व" इत्यादि तीन मन्त्रों से कुण्ड के तीन बाजू, और पृष्ठ 20 में लिखे प्रमाणे ‘ओं देव सवितः प्रसुव॰’ इस मन्त्र से कुण्ड के चारों ओर जल छिटकाके, पूर्व पृष्ठ 19 में लिखित अग्न्याधान समिदाधान कर अग्नि को प्रदीप्त करके, जो समिधा प्रदीप्त हुई हो उस पर लक्ष्य देकर पृष्ठ 20-21 में लिखे प्रमाणे आघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 22-23 में लिखे प्रमाणे आठ आज्याहुति, सब मिलके 16 सोलह आहुति देके, पृष्ठ 21-22 में लिखे प्रमाणे "ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि॰" इत्यादि मन्त्रों से चार आज्याहुति प्रधान होम की देके, पश्चात् पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे स्विष्टकृत् मन्त्र से एक आहुति मिलके पाँच घृत की आहुति देवें।
इतनी क्रिया करके कर्मकर्त्ता परमात्मा का ध्यान करके नाई की ओर प्रथम देखके—
ओम् आयमगन्त्सविता क्षुरेणोष्णेन वाय उदकेनेहि।
आदित्या रुद्रा वसव उन्दन्तु सचेतसः सोमस्य राज्ञो वपत प्रचेतसः॥
—अथर्व॰ कां॰ 6। सू॰ 68॥
इस मन्त्र का जप करके, पिता बालक के पृष्ठ-भाग में बैठके किञ्चित् उष्ण और किञ्चित् ठण्डा जल दोनों पात्रों में लेके—
ओम् उष्णेन वाय उदकेनैधि॥
इस मन्त्र को बोलके दोनों पात्र का जल एक पात्र में मिला देवे।
पश्चात् थोड़ा जल, थोड़ा माखन अथवा दही की मलाई लेके—
ओम् अदितिः श्मश्रु वपत्वाप उन्दन्तु वर्चसा।
चिकित्सतु    प्रजापतिर्दीर्घायुत्वाय   चक्षसे  ॥1॥
—अथर्व॰कां॰ 6। सू॰ 68॥
ओं सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तनूं
दीर्घायुत्वाय वर्चसे॥2॥
इन मन्त्रों को बोलके, बालक के शिर के बालों में तीन वार हाथ फेरके केशों को भिगोवे।तत्पश्चात् कङ्घा लेके केशों को सुधार के इकट्ठा करे, अर्थात् बिखरे न रहें। तत्पश्चात्—
ओम् ओषधे त्रायस्वैनम्॥1॥
इस मन्त्र को बोलके तीन दर्भ लेके दाहिनी बाजू के केशों के समूह को हाथ से दबाके—
ओं विष्णोर्दंष्ट्रोऽसि॥
इस मन्त्र से छुरे की ओर देखके—
ओं शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽ अस्तु मा मा हिंसीः॥
इस मन्त्र को बोलके छुरे को दहिने हाथ में लेवे। तत्पश्चात्—
ओं स्वधिते मैनं हिंसीः॥1॥
ओं निवर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥2॥
इन दो मन्त्रों को बोलके उस छुरे और उन कुशाओं को केशों के समीप ले जाके—
1—ओं येनावपत् सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्।
       तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य गोमानश्ववानयमस्तु प्रजावान्॥
—अथर्व॰ का॰ 6। सू॰ 68॥
इस मन्त्र को बोलके कुशासहित उन केशों को काटे *
[*केशछेदन की रीति ऐसी है कि दर्भ और केश दोनों युक्ति से पकड़ कर अर्थात् दोनों ओर से पकड़के बीच में से केशों को छुरे से काटे। यदि छुरे के बदले कैंची से काटे तो भी ठीक है।]
और वे काटे हुए केश और दर्भ शमीवृक्ष के पत्रसहित, अर्थात् यहां शमीवृक्ष के पत्र भी प्रथम से रखने चाहिएँ, उन सब को लड़के का पिता और लड़के की मां एक शरावा में रक्खें और कोई केश छेदन करते समय उड़ा हो, उस को गोबर से उठाके शरावा में अथवा उस के पास रखें। तत्पश्चात् इसी प्रकार—
2—ओं येन धाता बृहस्पतेरग्नेरिन्द्रस्य चायुषेऽवपत्।
       तेन त आयुषे वपामि सुश्लोक्याय स्वस्तये॥
इस मन्त्र से दूसरी वार केश का समूह दूसरी ओर का काटके उसी प्रकार शरावा में रखे। तत्पश्चात्—
3—ओं येन भूयश्च रात्र्यां ज्योक् च पश्याति सूर्यम्।
       तेन त आयुषे वपामि सुश्लोक्याय स्वस्तये॥
इस मन्त्र से तीसरी वार उसी प्रकार केशसमूह को काटके उपरि उक्त तीन मन्त्रों—अर्थात् (ओं येनावपत्॰), (ओं येन धाता॰), (ओं येन भूयश्च॰), और—
4—ओं येन पूषा बृहस्पतेर्वायोरिन्द्रस्य चावपत्।
       तेन ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय दीर्घायुष्ट्वाय वर्चसे॥
इस एक, इन चार मन्त्रों को बोलके चौथी वार इसी प्रकार केशों के समूह को काटे। अर्थात् प्रथम दक्षिण बाजू के केश काटने का विधि पूर्ण हुए पश्चात् बायीं ओर के केश काटने का विधि करे। तत्पश्चात् उस के पीछे आगे के केश काटे।
परन्तु चौथी वार काटने में "येन पूषा॰" इस मन्त्र के बदले—
ओं येन भूरिशरादिवं ज्योक् च पश्चाद्धि सूर्यम्।
तने   ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय सुश्लोक्याय स्वस्तये॥
यह मन्त्र बोल चौथी वार छेदन करे। तत्पश्चात्—
ओं त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्।
यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽ अस्तु त्र्यायुषम्॥
इस एक मन्त्र को बोलके शिर के पीछे के केश एक वार काटके इसी (ओं त्र्यायुषं॰) मन्त्र को बोलते जाना और ओंधे हाथ के पृष्ठ से बालक के
शिर पर हाथ फेरके मन्त्र पूरा हुए पश्चात् छुरा नाई के हाथ में देके—
ओं यत् क्षुरेण मरयता सुपेशसा वप्ता वपसि केशान्।
शुन्धि शिरो मास्यायुः प्रमोषीः॥
इस मन्त्र को बोलके नापित से पथरी पर छुरे की धार तेज कराके, नापित से बालक का पिता कहे कि—‘इस शीतोष्ण जल से बालक का शिर अच्छे प्रकार कोमल हाथ से भिगो। सावधानी और कोमल हाथ से क्षौर कर। कहीं छुरा न लगने पावे’। इतना कहके कुण्ड से उत्तर दिशा में नापित को ले जा, उसके सम्मुख बालक को पूर्वाभिमुख बैठाके,जितने केश रखने हों, उतने ही केश रखे। परन्तु पांचों ओर थोड़ा-थोड़ा केश रखावे, अथवा किसी एक ओर रखे। अथवा एक वार सब कटवा देवे, पश्चात् दूसरी वार के केश रखने अच्छे होते हैं।
जब क्षौर हो चुके, तब कुण्ड के पास पड़ा वा धरा हुआ देने के योग्य पदार्थ वा शरावा आदि कि जिनमें प्रथम अन्न भरा था, नापित को देवे और मुण्डन किये हुए सब केश दर्भ शमीपत्र और गोबर नाई को देवे। यथायोग्य उस को धन वा वस्त्र भी देवे और नाई केश, दर्भ, शमीपत्र और गोबर को जग्ल में ले जा, गढ़ा खोदके उस में सब डाल ऊपर से मिट्टी से दबा देवे। अथवा गोशाला, नदी वा तालाब के किनारे पर उसी प्रकार केशादि को गाड़ देवे, ऐसा नापित से कह दे। अथवा किसी को साथ भेज देवे, वह उस से उक्त प्रकार करवा लेवे।
क्षौर हुए पश्चात् मक्खन अथवा दही की मलाई हाथ में लगा, बालक के शिर पर लगाके स्नान करा, उत्तम वस्त्र पहिनाके, बालक को पिता अपने पास ले शुभासन पर पूर्वाभिमुख बैठके, पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे सामवेद का महावामदेव्यगान करके, बालक की माता स्त्रियों और बालक का पिता पुरुषों का यथायोग्य सत्कार करके विदा
करें और जाते समय सब लोग तथा बालक के माता-पिता परमेश्वर का ध्यान करके—
"ओं त्वं जीव शरदः शतं वर्धमानः"॥
इस मन्त्र को बोल बालक को आशीर्वाद देके अपने-अपने घर को पधारें। और बालक के माता-पिता प्रसन्न होकर बालक को प्रसन्न रक्खें॥

॥ इति चूडाकर्मसंस्कारविधिः समाप्तः॥


सीमंत संस्कार


[3]
अथ सीमन्तोन्नयनम्
अब तीसरा संस्कार ‘सीमन्तोनयन’ कहते हैं। जिससे गर्भिणी स्त्री का मन सन्तुष्ट आरोग्य गर्भ स्थिर उत्कृष्ट होवे, और प्रतिदिन बढ़ता
जावे। इस में आगे प्रमाण लिखते हैं—
चतुर्थे गर्भमासे सीमन्तोनयनम्॥1॥
आपूर्यमाणपक्षे यदा पुंसा नक्षत्रेण चन्द्रमा युक्तः स्यात्॥2॥
अथास्यै युग्मेन शलालुग्रप्सेन त्र्येण्या च शलल्या त्रिभिश्च
कुशपिञ्जूलैरूर्ध्वं सीमन्तं व्यूहति भूर्भुवः स्वरोमिति त्रिः चतुर्वा॥
—यह आश्वलायनगृह्यसूत्र॥
पुंसवनवत् प्रथमे गर्भे मासे षष्ठेऽष्टमे वा॥
—यह पारस्कर गृह्यसूत्र का प्रमाण॥
इसी प्रकार गोभिलीय और शौनक गृह्यसूत्र में भी लिखा है।
अर्थ—गर्भमास से चौथे महीने में शुक्लपक्ष में जिस दिन मूल आदि पुरुष नक्षत्रों से युक्त चन्द्रमा हो,उसी दिन सीमन्तोनयन संस्कार करें। और पुंसवन संस्कार के तुल्य छठे आठवें महीने में पूर्वोक्त पक्ष नक्षत्रयुक्त चन्द्रमा के दिन सीमन्तोनयन संस्कार करें।
अथ विधि—इस में प्रथम 20 पृष्ठ तक का विधि करके (अदितेऽनुमन्यस्व) इत्यादि पृष्ठ 20 में लिखे प्रमाणे वेदी से पूर्वादि दिशाओं में जल सेचन करके—
ओं देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय।
दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतन्नः पुनातु
वाचस्पतिर्वाचन्नः स्वदतु स्वाहा॥          —य॰अ॰ 30। मं॰ 7॥
इस मन्त्र से कुण्ड के चारों ओर जल-सेचन करके आघारावाज्य- भागाहुति 4 चार, और व्याहृति आहुति 4 चार—दोनों मिलके 8 आठ आहुति पृष्ठ 20-21 में लिखे प्रमाणे करके—
ओं प्रजापतये त्वा जुष्टं निर्वपामि॥
अर्थात् चावल, तिल, मूंग इन तीनों को सम भाग लेके—
ओं प्रजापतये त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥
अर्थात् धोके इन की खिचड़ी बना, उस में पुष्कल घी डालके
निम्नलिखित मन्त्रों से 8 आठ आहुति देवें—
ओं धाता ददातु दाशुषे प्राचीं जीवातुमक्षिताम्।
वयं देवस्य धीमहि सुमतिं वाजिनीवती स्वाहा॥
इदं धात्रे इदन्न मम॥1॥
ओं धाता प्रजानामुत राय ईशे धातेदं विश्वं भुवनं जजान।
धाता कृष्टीरनिमिषाभि चष्टे धात्र इद्धव्यं घृतवज्जुहोत स्वाहा॥
इदं धात्रे इदन्न मम॥2॥
ओं राकामहं सुहवां सुष्टुती हुवे शृणोतु नः सुभगा बोधतु त्मना।
सीव्यत्वपः सूच्याच्छिद्यमानया ददातु वीरं शतदायमुक्थ्यं स्वाहा॥
इदं राकायै इदन्न मम॥3॥
यास्ते राके सुमतयः सुपेशसो याभिर्ददासि दाशुषे वसूनि।
ताभिर्नो अद्य सुमना उपागहि सहस्रपोषं सुभगे रराणा स्वाहा॥
इदं राकायै इदन्न मम॥4॥        —ऋ॰मं॰ 2। सू॰ 32। मं॰ 4, 5॥
नेजमेष परा पत सुपुत्रः पुनरा पत।
अस्यै मे पुत्रकामायै गर्भमा धेहि यः पुमान्त्स्वाहा॥5॥
यथेयं पृथिवी मह्युत्ताना गर्भमा दधे।
एवं त गर्भमा धेहि दशमे मासि सूतवे स्वाहा॥6॥
विष्णोः श्रेष्ठेन रूपेणास्यां नार्यां गवीन्याम्।
पुमांसं पुत्राना धेहि दशमे मासि सूतवे स्वाहा॥7॥
इन 7 सात मन्त्रों से खिचड़ी की सात आहुतिदेके, पुनः (भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्व॰) पृष्ठ 22 में लिखित इस से एक, सब मिलाके 8 आठ आहुति देवें। और पृष्ठ 22 में लिखे प्रमाणे (ओं प्रजापतये॰) मन्त्र से एक भात की, और पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे (ओं यदस्य कर्मणो॰) मन्त्र से एक खिचड़ी की आहुति देवें। तत्पश्चात् (ओं त्वन्नो अग्ने॰) पृष्ठ 22-23 में लिखे प्रमाणे 8 आठ घृत की आहुति और (ओं भूरग्नये॰) पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे 4 चार व्याहृति मन्त्रों से चार आज्याहुति देकर पति और पत्नी एकान्त में जाके उत्तमासन पर बैठ पति पत्नी के पश्चात्=पृष्ठ की ओर बैठ—
ओं सुमित्रिया नऽ आपऽ ओषधयः सन्तु।  दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि यञ्च वयं द्विष्मः॥1॥               —य॰अ॰ 6। मं॰ 22॥
मूर्द्धानं दिवोऽअरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृतऽआ जातमग्निम्।
कविं सम्राजमतिथिं जनानामासन्ना पात्रं जनयन्त देवाः॥2॥
—य॰अ॰ 7। मं॰ 24॥
ओम् अयमूर्ज्जावतो वृक्ष ऊर्ज्जीव फलिनी भव।
पर्णं वनस्पतेऽनु त्वाऽनु त्वा सूयतां रयिः॥3॥
ओं येनादितेः सीमानं नयति प्रजापतिर्महते सौभगाय।
तेनाहमस्यै सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टिं कृणोमि॥4॥
ओं राकामहं सुहवां सुष्टुती हुवे शृणोतु नः सुभगा बोधतु त्मना।
सीव्यत्वपः सूच्या छिद्यमानया ददातु वीरं शतदायमुक्थ्यम्॥5॥
ओं यास्ते राके सुमतयः सुपेशसो याभिर्ददासि दाशुषे वसूनि।
ताभिर्नो अद्य सुमना उपागहि सहस्रपोषं सुभगे रराणा॥6॥
किं पश्यसि प्रजां पशून्त्सौभाग्यं मह्यं दीर्घायुष्ट्वं पत्युः॥7॥
इन मन्त्रों को पढ़के पति अपने हाथ से स्वपत्नी के केशों में सुगन्ध तेल डाल, कंघे से सुधार, हाथ में उदुम्बर अथवा अर्जुन वृक्ष की शलाका वा कुशा की मृदु छीपी वा शाही पशु के कांटे से अपनी पत्नी के केशों को स्वच्छ कर, पट्टी निकाल और पीछे की ओर जूड़ा सुन्दर बांधकर यज्ञशाला में आवें। उस समय वीणा आदि बाजे बजवावें।
तत्पश्चात् पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे सामवेद का गान करें। पश्चात्—
ओं सोम एव नो राजेमा मानुषीः प्रजाः।
अविमुक्तचक्र आसीरंस्तीरे तुभ्यम् असौ *॥
(*यहां किसी नदी का नामोच्चारण करें।)
आरम्भ में इस मन्त्र का गान करके, पश्चात् अन्य मन्त्रों का गान करें। तत्पश्चात् पूर्व आहुतियों के देने से बची हुई खिचड़ी में पुष्कल घृत डालके गर्भिणी स्त्री अपना प्रतिबिम्ब उस घी में देखे। उस समय पति स्त्री से पूछे—“किं पश्यसि”? स्त्री उत्तर देवे—“प्रजां पश्यामि”।
तत्पश्चात् एकान्त में वृद्ध कुलीन सौभाग्यवती पुत्रवती गर्भिणी अपने कुल की और ब्राह्मणों की स्त्रियां बैठें। प्रसन्नवदन और प्रसन्नता की बातें करें। और वह गर्भिणी स्त्री उस खिचड़ी को खावे। और वे वृद्ध समीप बैठी हुईं उत्तम स्त्री लोग ऐसा आशीर्वाद देवें—
ओं वीरसूस्त्वं भव, जीवसूस्त्वं भव, जीवपत्नी त्वं भव॥
ऐसे शुभ माङ्गलिक वचन बोलें। तत्पश्चात् संस्कार में आये हुए मनुष्यों का यथायोग्य सत्कार करके स्त्री स्त्रियों और पुरुष पुरुषों को विदा करें॥
॥ इति सीमन्तोन्नयनसंस्कारविधिः समाप्तः॥


जातकर्म संस्कार

जातकर्म संस्कार
[4]
अथ जातकर्मसंस्कारविधिः
इस का समय और प्रमाण और कर्मविधि इस प्रकार करें—
सोष्यन्तीमद्भिरभ्युक्षति॥
—इत्यादि पारस्कर गृह्यसूत्र का प्रमाण है।
इसी प्रकार आश्वलायन, गोभिलीय और शौनकगृह्यसूत्रों में भी लिखा है।
जब प्रसव होने का समय आवे, तब निम्नलिखित मन्त्र से गर्भिणी स्त्री के शरीर पर जल से मार्जन करे—
ओम् एजतु दशमास्यो गर्भो जरायुणा सह।
यथायं वायुरेजति यथा समुद्र एजति।
एवायं दशमास्यो अस्रज्जरायुणा सह॥1॥
—यजुः॰ अ॰ 8। मं॰ 28॥
इस से मार्जन करने के पश्चात्—
ओम् अवैतु पृश्निशेवलं शुने जराय्वत्तवे।
नैव मांसेन पीवरीं न कस्मिंश्चनायतनमव जरायु पद्यताम्॥
इस मन्त्र का जप करके पुनः मार्जन करे।
कुमारं जातं पुराऽन्यैरालम्भात् सर्पिर्मधुनी हिरण्यनिकाषं हिरण्ययेन प्राशयेत्॥
जब पुत्र का जन्म होवे, तब प्रथम दायी आदि स्त्री लोग बालक के शरीर का जरायु पृथक् कर मुख, नासिका, कान, आंख आदि में से मल को शीघ्र दूर कर कोमल वस्त्र से पोंछ, शुद्ध कर, पिता के गोद में बालक को देवें। पिता जहां वायु और शीत का प्रवेश न हो, वहां बैठके एक बीता भर नाड़ी को छोड़, ऊपर सूत से बांधके, उस बन्धन के ऊपर से नाड़ीछेदन करके किञ्चित् उष्ण जल से बालक को स्नान करा, शुद्ध वस्त्र से पोंछ, नवीन शुद्ध वस्त्र पहिना जो प्रसूता-घर के बाहर पूर्वोक्त प्रकार कुण्ड कर रखा हो अथवा तांबे के कुण्ड में समिधा पूर्वलिखित प्रमाणे चयन कर पूर्वोक्त सामान्यविध्युक्त पृष्ठ 17-19 में कहे प्रमाणे अग्न्याधान समिदाधान करके, अग्नि को प्रदीप्त करके, सुगन्धित घृतादि वेदी के पास रखके, हाथ-पग धोके,

एक पीठासन अर्थात् शुभासन पुरोहित* के लिये कुण्ड के दक्षिण भाग में रखे, वह उस पर उत्तराभिमुख बैठे और यजमान अर्थात् बालक का पिता हाथ पग धोके वेदी के पश्चिम भाग में आसन बिछा, उस पर उपवस्त्र ओढ़के पूर्वाभिमुख बैठे तथा सब सामग्री अपने और पुरोहित के पास रखके पुरोहित पद के स्वीकार के लिये बोले—
[*पुरोहित=धर्मात्मा शास्त्रोक्त विधि को पूर्णरीति से जाननेहारा, विद्वान्, सद्धर्मी, कुलीन, निर्व्यसनी, सुशील, वेदप्रिय, पूजनीय, सर्वोपकारी गृहस्थ की ‘पुरोहित’ संज्ञा है।]
ओम् आ वसोः सदने सीद॥
तत्पश्चात् पुरोहित—ओं सीदामि॥
बोलके आसन पर बैठके, पृष्ठ 19 में लिखे प्रमाणे अयं त इध्म॰ आदि चार मन्त्रों से वेदी में चन्दन की समिदाधान करे और प्रदीप्त समिधा पर पूर्वोक्त सिद्ध किये घी की पृष्ठ 20-21 में लिखे प्रमाणे आघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार दोनों मिलके 8 आठ आज्याहुति देनी। तत्पश्चात्—
ओं या तिरश्ची निपद्यते अहं विधरणी इति।
तां त्वा घृतस्य धारया यजे संराधनीमहम्।
संराधिन्यै देव्यै देष्ट्र्यै स्वाहा॥
इदं संराधिन्यै इदन्न मम॥1॥
ओं विपश्चित् पुच्छमभरत् तद्धाता पुनराहरत्।
परेहि त्वं विपश्चित् पुमानयं जनिष्यतेऽसौ नाम स्वाहा॥
इदं धात्रे इदन्न मम॥2॥
इन दोनों मन्त्रों से 2 दो आज्याहुति करके, पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे वामदेव्य गान करके, 4-11 पृष्ठ में लिखे प्रमाणे ईश्वरोपासना करें।
तत्पश्चात् घी और मधु दोनों बरोबर मिलाके, जो प्रथम सोने की शलाका कर रखी हो, उस से बालक की जीभ पर "ओ३म्" यह अक्षर लिखके उस के दक्षिण कान में "वेदोऽसीति"—‘तेरा गुप्त नाम वेद है’ ऐसा सुनाके पूर्व मिलाये हुए घी और मधु को उस सोने की शलाका से बालक को नीचे लिखे मन्त्र से थोड़ा-थोड़ा चटावे—
ओं प्र ते ददामि मधुनो घृतस्य वेदं सवित्रा प्रसूतं मघोनाम्।
आयुष्मान् गुप्तो देवताभिः शतं जीव शरदो लोके अस्मिन्॥1॥
ओं भूस्त्वयि दधामि॥2॥
ओं भुवस्त्वयि दधामि॥3॥
ओं स्वस्त्वयि दधामि॥4॥
ओं भूर्भुवः स्वस्सर्वं त्वयि दधामि॥5॥
ओं सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्।
सनिं मेधामयासिषं स्वाहा॥6॥
इन प्रत्येक मन्त्रों से छह वार घृत-मधु प्राशन कराके तत्पश्चात् चावल और जव को शुद्ध कर पानी से पीस, वस्त्र से छान, एक पात्र में रखके हाथ के अंगूठा और अनामिका से थोड़ा सा लेके—
ओम् इदमाज्यमिदमन्नमिदमायुरिदममृतम्॥
इस मन्त्र को बोलके बालक के मुख में एक बिन्दु छोड़ देवे।
यह एक गोभिलीय गृह्यसूत्र का मत है, सब का नहीं।
पश्चात् बालक का पिता बालक के दक्षिण कान में मुख लगाके निम्नलिखित मन्त्र बोले—
ओं मेधां ते देवः सविता मेधां देवी सरस्वती।
मेधां   ते     अश्विनौ      देवावाधत्तां    पुष्करस्रजौ॥1॥
ओम् अग्निरायुष्मान्त्स वनस्पतिभिरायुष्माँस्तेन
त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि॥2॥
ओं सोम आयुष्मान्त्स ओषधीभिरायुष्माँस्तेन॰*॥3॥
[*यहां पूर्व मन्त्र का शेषभाग (त्वा) इत्यादि उत्तर मन्त्रों के पश्चात् बोले।]
ओं ब्रह्माऽऽयुष्मत् तद् ब्राह्मणैरायुष्मत् तेन॰॥4॥
ओं    देवा   आयुष्मन्तस्तेऽमृतेनायुष्मन्तस्तेन॰॥5॥
ओम् ऋषय आयुष्मन्तस्ते व्रतैरायुष्मन्तस्तेन॰॥6॥
ओं पितर आयुष्मन्तस्ते स्वधाभिरायुष्मन्तस्तेन॰॥7॥
ओं यज्ञ आयुष्मान्त्स दक्षिणाभिरायुष्माँस्तेन॰॥8॥
ओं समुद्र आयुष्मान्त्स स्रवन्तीभिरायुष्माँस्तेन
त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि॥9॥
इन नव मन्त्रों का जप करे। इसी प्रकार बांयें कान पर मुख धर ये ही नव मन्त्र पुनः जपे।
इस के पीछे बालक के कन्धों पर कोमल स्पर्श से हाथ धर अर्थात् बालक के स्कन्धों पर हाथ का बोझ न पड़े, धरके निम्नलिखित मन्त्र बोले—
ओम् इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चित्तिं दक्षस्य सुभगत्वमस्मे।
पोषं रयीणामरिष्टिं तनूनां स्वाद्मानं वाचः सुदिनत्वमह्नाम्॥1॥
अस्मे प्र यन्धि मघवन्नृजीषिन्निन्द्र रायो विश्ववारस्य भूरेः।
अस्मे शतं शरदो जीवसे धा अस्मे वीराञ्छश्वत इन्द्र शिप्रिन्॥2॥
ओम् अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्तृतं भव।
वेदो वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम्॥3॥
इन तीन मन्त्रों को बोले। तत्पश्चात्—
ओं त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्।
यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽ अस्तु त्र्यायुषम्॥
इस मन्त्र का तीन वार जप करे।
तत्पश्चात् बालक के स्कन्धों पर से हाथ उठा ले और जिस जगह पर बालक का जन्म हुआ हो वहां जाके—
ओं वेद ते भूमि हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्। वेदाहं तन्मां तद्विद्यात् पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतम्॥1॥
इस मन्त्र का जप करे। तथा—
यत्ते   सुसीमे हृदयं  हितमन्तः    प्रजापतौ      ।
वेदाहं मन्ये तद् ब्रह्म माहं पौत्रमघं निगाम्॥2॥
यत् पृथिव्या अनामृतं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्।
वेदामृतस्येह   नाम   माहं   पौत्रमघं रिषम्  ॥3॥
इन्द्राग्नी शर्म यच्छतं प्रजायै मे प्रजापती।
यथायं न     प्रमीयते      पुत्रो   जनित्र्या      अधि  ॥4॥
यददश्चन्द्रमसि कृष्णं पृथिव्या हृदयं श्रितम्।
तदहं विद्वांस्तत् पश्यन् माहं पौत्रमघं रुदम्॥5॥
इन मन्त्रों को पढ़ता हुआ सुगन्धित जल से प्रसूता के शरीर का मार्जन करे।
कोऽसि कतमोऽस्येषोऽस्यमृतोऽसि।
आहस्पत्यं    मासं   प्रविशासौ     ॥6॥
स त्वाह्ने परिददात्वहस्त्वा रात्र्यै परिददातु रात्रिस्त्वाहोरात्राभ्यां परिददात्वहोरात्रौ त्वार्द्धमासेभ्यः परिदत्तामर्द्धमासास्त्वा मासेभ्यः परिददतु मासास्त्वर्तुभ्यः परिददत्वृतवस्त्वा संवत्सराय परिददतु संवत्सरस्त्वायुषे जरायै परिददात्वसौ॥7॥

इन मन्त्रों को पढ़के बालक को आशीर्वाद देवे। पुनः—
अङ्गाद् अङ्गात्      संस्रवसि हृदयादधिजायसे।
प्राणं ते प्राणेन सन्दधामि जीव मे यावदायुषम्॥8॥
अङ्गादङ्गात्  सम्भवसि     हृदयादधिजायसे      ।
वेदो वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम्॥9॥
अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्तृतं भव।
आत्माऽसि पुत्र मा मृथाः स जीव शरदः शतम्॥10॥
पशूनां त्वा हिङ्कारेणाभिजिघ्राम्यसौ॥11॥
इन मन्त्रों को पढ़के पुत्र के शिर का आघ्राण करे अर्थात् सूंघे। इसी प्रकार जब-जब परदेश से आवे वा जावे, तब-तब भी इस क्रिया को करे, जिस से पुत्र और पिता-माता में अति प्रेम बढ़े।
ओम् इडासि मैत्रावरुणी वीरे वीरमजीजनथाः।
सा त्वं वीरवती भव याऽस्मान् वीरवतोऽकरत्॥
इस मन्त्र से ईश्वर की प्रार्थना करके, प्रसूता स्त्री को प्रसन्न करके, पश्चात् स्त्री के दोनों स्तन किञ्चित् उष्ण सुगन्धित जल से प्रक्षालन कर पोंछके—
ओम् इमं स्तनमूर्ज स्वन्तं धयापां प्रपीनमग्ने सरिरस्य मध्ये।
उत्सं जुषस्व मधुमन्तमर्वन्त्समुद्रियं सदनमा विशस्व॥
इस मन्त्र को पढ़के दक्षिण स्तन प्रथम बालक के मुख में देवे। इसके पश्चात्—
ओं यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः।
येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवे कः॥
इस मन्त्र को पढ़के वाम स्तन बालक के मुख में देवे। तत्पश्चात्—
ओम् आपो देवेषु जाग्रथ यथा देवेषु जाग्रथ।
एवमस्यां सूतिकायां सपुत्रिकायां जाग्रथ॥
इस मन्त्र से प्रसूता स्त्री के शिर की ओर एक कलश जल से पूर्ण भरके दश रात्रि तक वहीं धर रक्खे तथा प्रसूता स्त्री प्रसूत-स्थान में दश दिन तक रहे। वहां नित्य सायं और प्रातःकाल सन्धिवेला में निम्नलिखित दो मन्त्रों से भात और सरसों मिलाके दश दिन तक बराबर आहुतियाँ देवे—
ओं शण्डामर्का उपवीरः शौण्डिकेय उलूखलः।
मलिम्लुचो द्रोणासश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा॥
इदं    शण्डामर्काभ्यामुपवीराय      शौण्डिकेयायोलूखलाय
मलिम्लुचाय द्रोणेभ्यश्च्यवनाय इदन्न मम॥1॥
ओम् आलिखन्ननिमिषः किंवदन्त उपश्रुतिर्हर्यक्षः कुम्भीशत्रुः
पात्रपाणिर्नृमणिर्हन्त्रीमुखः सर्षपारुणश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा॥
इदमालिखतेऽनिमिषाय किंवदद्भ्य उपश्रुतये हर्यक्षाय कुम्भीशत्रवे पात्रपाणये नृमणये हन्त्रीमुखाय सर्षपारुणाय च्यवनाय इदन्न मम॥2॥
इन मन्त्रों से 10 दिन तक होम करके पश्चात् अच्छे-अच्छे विद्वान् धार्मिक वैदिक मतवाले बाहर खड़े रहकर और बालक का पिता भीतर रहकर आशीर्वादरूपी नीचे लिखे मन्त्रों का पाठ आनन्दित होके करें—
मा नो हासिषुऋर्षयो दैव्या ये तनूपा ये नस्तन्वद्वस्तनूजाः।
अमर्त्या मर्त्याँ अभि नः सचध्वमायुर्धत्त प्रतरं जीवसे नः॥1॥
—अथर्व॰का॰ 6। अनु॰ 4। सू॰ 41॥
इमं जीवेभ्यः परिधिं दधामि मैषां नु गादपरो अर्थमेतम्।
शतं जीवन्तः शरदः पुरूचीस्तिरो मृत्युं दधतां पर्वतेन॥2॥
—अथर्व॰ का॰ 12। अनु॰ 2। मं॰ 23॥
विवस्वान्नो अभयं कृणोतु यः सुत्रामा जीरदानुः सुदानुः।
इहेमे वीरा बहवो भवन्तु गोमदश्ववन्मय्यस्तु पुष्टम्॥3॥
—अथर्व॰का॰ 18। अनु॰ 3। मं॰ 61॥

॥ इति जातकर्मसंस्कारविधिः समाप्तः॥


नामकरण संस्कार
[5]
अथ नामकरणसंस्कारविधिं वक्ष्यामः
अत्र प्रमाणम्—नाम चास्मै दद्युः॥1॥
घोषवदाद्यन्तरन्तःस्थमभिनिष्ठानान्तं द्व्यक्षरम्॥2॥
चतुरक्षरं वा॥3॥
द्व्यक्षरं प्रतिष्ठाकामश्चतुरक्षरं ब्रह्मवर्चसकामः॥4॥
युग्मानि त्वेव पुंसाम्॥5॥
अयुजानि स्त्रीणाम्॥6॥
अभिवादनीयं च समीक्षेत तन्मातापितरौ विदध्यातामोपनयनात्॥7॥
—इत्याश्वलायनगृह्यसूत्रेषु॥
दशम्यामुत्थाप्य पिता नाम करोति— द्व्यक्षरं चतुरक्षरं वा घोषवदाद्यन्तरन्तःस्थं  दीर्घाभिनिष्ठानान्तं कृतं कुर्यान्न तद्धितम्,अयुजाक्षरमाकारान्तं स्त्रियै। शर्म ब्राह्मणस्य वर्म क्षत्रियस्य गुप्तेति वैश्यस्य॥
इसी प्रकार गोभिलीय और शौनक गृह्यसूत्र में भी लिखा है॥
नामकरण—अर्थात् जन्मे हुए बालक का सुन्दर नाम धरे।
नामकरण का काल—जिस दिन जन्म हो उस दिन से लेके 10 दिन छोड़ ग्यारहवें, वा एक सौ एकवें अथवा दूसरे वर्ष के आरम्भ में जिस दिन जन्म हुआ हो, नाम धरे।
जिस दिन नाम धरना हो, उस दिन अति प्रसन्नता से इष्ट मित्र हितैषी लोगों को बुला, यथावत् सत्कार कर, क्रिया का आरम्भ यजमान बालक का पिता और ऋत्विज करें।
पुनः पृष्ठ 4-21 में लिखे प्रमाणे सब मनुष्य ईश्वरोपासना, स्वस्तिवाचन, शान्तिकरण और सामान्यप्रकरणस्थ सम्पूर्ण विधि करके आघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 22-23 में लिखे प्रमाणे (त्वन्नो अग्ने॰) इत्यादि आठ मन्त्रों से 8 आठ आहुति, अर्थात् सब मिलाके 16 घृताहुति करें।
तत्पश्चात् बालक को शुद्ध स्नान करा, शुद्ध वस्त्र पहिनाके उस की माता कुण्ड के समीप बालक के पिता के पीछे से आ दक्षिण भाग में होकर, बालक का मस्तक उत्तर दिशा में रखके, बालक के पिता के हाथ में देवे। और स्त्री पुनः उसी प्रकार पति के पीछे होकर उत्तर भाग में पूर्वाभिमुख बैठे। तत्पश्चात् पिता उस बालक को उत्तर में शिर और दक्षिण में पग करके अपनी पत्नी को देवे। पश्चात् जो उसी संस्कार के लिए कर्त्तव्य हो, उस प्रथम प्रधान होम को करें। पूर्वोक्त प्रकार घृत और सब शाकल्य सिद्ध कर रखें। उस में से प्रथम घी का चमसा भरके—
ओं प्रजापतये स्वाहा॥
इस मन्त्र से एक आहुति देकर, पीछे जिस तिथि जिस नक्षत्र में बालक का जन्म हुआ हो, उस तिथि और उस नक्षत्र का नाम लेके, उस तिथि और उस नक्षत्र के देवता के नाम से 4 चार आहुति देनी। अर्थात् एक तिथि, दूसरी तिथि के देवता, तीसरी नक्षत्र, और चौथी नक्षत्र के देवता के नाम से, अर्थात् तिथि नक्षत्र और उन के देवताओं के नाम के अन्त में चतुर्थी विभक्ति का रूप और स्वाहान्त बोलके 4 चार घी की आहुति देवे। जैसे किसी का जन्म प्रतिपदा और अश्विनी नक्षत्र में हुआ हो तो—
ओं प्रतिपदे स्वाहा। ओं ब्रह्मणे स्वाहा। ओम् अश्विन्यै
स्वाहा। ओम् अश्विभ्यां स्वाहा॥*
[*तिथिदेवताः—1. ब्रह्मन्। 2. त्वष्टृ। 3. विष्णु। 4. यम। 5. सोम। 6. कुमार। 7. मुनि। 8. वसु। 9. शिव। 10. धर्म। 11. रुद्र। 12. वायु। 13. काम। 14. अनन्त। 15. विश्वेदेव। 30. पितर।
नक्षत्रदेवताः—अश्विनी—अश्वी। भरणी—यम। कृत्तिका—अग्नि।रोहिणी—प्रजापति। मृगशीर्ष—सोम। आर्द्रा—रुद्र। पुनर्वसु—अदिति। पुष्य—बृहस्पति। आश्लेषा—सर्प। मघा—पितृ। पूर्वाफाल्गुनी—भग। उत्तराफाल्गुनी—अर्यमन्। हस्त—सवितृ। चित्रा—त्वष्टृ। स्वाति—वायु। विशाखा—इन्द्राग्नी। अनुराधा—मित्र। ज्येष्ठा—इन्द्र। मूल—निऋर्ति। पूर्वाषाढा—अप्। उत्तराषाढा—विश्वेदेव। श्रवण—विष्णु। धनिष्ठा—वसु। शतभिषज्—वरुण। पूर्वाभाद्रपदा—अजैकपाद्। उत्तराभाद्रपदा—अहिर्बुध्न्य। रेवती—पूषन्।]
तत्पश्चात् पृष्ठ 21 में लिखी हुई स्विष्टकृत्-मन्त्र से एक आहुति और पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे 4 चार व्याहृति आहुति दोनों मिलके 5 पांच आहुति देके, तत्पश्चात् माता बालक को लेके शुभ आसन पर बैठे। और पिता बालक के नासिका द्वार से बाहर निकलते हुए वायु का स्पर्श करके—
कोऽसि कतमोऽसि कस्यासि को नामासि।
      यस्य ते नामामन्महि यं त्वा सोमेनातीतृपाम॥   

भूर्भुवः स्वः। सुप्रजाः प्रजाभिः स्यां सुवीरो वीरैः सुपोषः पोषैः॥   
—यजुः अ॰ 7। मं॰ 29॥
ओं कोऽसि कतमोऽस्येषोऽस्यमृतोऽसि। आहस्पत्यं मासं प्रविशासौ॥
जो यह "असौ" पद है, इस के पीछे बालक का ठहराया हुआ नाम, अर्थात् जो पुत्र हो तो नीचे लिखे प्रमाणे दो अक्षर का वा चार अक्षर का, घोषसंज्ञक और अन्तःस्थ वर्ण अर्थात् पांचों वर्गों के दो-दो अक्षर छोड़के तीसरा चौथा पांचवाँ और य र ल व—ये चार वर्ण नाम में अवश्य आवें*।
[*ग, घ, ङ, ज, झ, ञ, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म ये स्पर्श और य, र, ल, व ये चार अन्तःस्थ और ह एक ऊष्मा, इतने अक्षर नाम में होने चाहियें, और स्वरों में से कोई भी स्वर हो। जैसे—भद्रः, भद्रसेनः, देवदत्तः, भवः, भवनाथः, नागदेवः, रुद्रदत्तः, हरिदेवः इत्यादि। पुरुषों का समाक्षर नाम रखना चाहिये, तथा स्त्रियों का विषमाक्षर नाम रखे। अन्त्य में दीर्घ स्वर और तद्धितान्त भी होवे। जैसे—श्रीः, ह्रीः, यशोदा, सुखदा, गान्धारी, सौभाग्यवती, कल्याणक्रोडा इत्यादि। परन्तु स्त्रियों के जिस प्रकार के नाम कभी न रखे, उसमें प्रमाण—
नर्क्षवृक्षनदीनाम्नीं    नान्त्यपर्वतनामिकाम्।
न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषणनामिकाम्॥ —मनुस्मृतौ
(ऋक्ष) रोहिणी, रेवती इत्यादि (वृक्ष) चम्पा, तुलसी इत्यादि (नदी) गङ्गा, यमुना, सरस्वती इत्यादि (अन्त्य) चाण्डाली इत्यादि (पर्वत) विन्ध्याचला, हिमालया इत्यादि (पक्षी) कोकिला, हंसा इत्यादि (अहि) सर्पिणी, नागी इत्यादि (प्रेष्य) दासी, किंकरी इत्यादि (भयंकर) भीमा, भयंकरी, चण्डिकाइत्यादि नाम निषिद्ध हैं।]
जैसे—देव अथवा जयदेव। ब्राह्मण हो तो देवशर्मा, क्षत्रिय हो तो देववर्मा, वैश्य हो तो देवगुप्त और शूद्र हो तो देवदास इत्यादि। और जो स्त्री हो तो एक, तीन वा पांच अक्षर का नाम रखे—श्री, ह्री, यशोदा, सुखदा, सौभाग्यप्रदा इत्यादि। नामों को प्रसिद्ध बोलके, पुनः "असौ" पद के स्थान में बालक का नाम धरके पुनः (ओं कोऽसि॰) ऊपर लिखित मन्त्र बोलना।
ओं स त्वाह्ने परिददात्वहस्त्वा रात्र्यै परिददातु रात्रिस्त्वाहोरात्राभ्यां परिददात्वहोरात्रौ त्वार्द्धमासेभ्यः परिदत्तामर्द्धमासास्त्वा मासेभ्यः परिददतु मासास्त्वर्तुभ्यः परिददत्वृतवस्त्वा संवत्सराय परिददतु संवत्सरस्त्वायुषे जरायै परिददातु, असौ॥

इन मन्त्रों से बालक को जैसा जातकर्म में लिख आये हैं, वैसे आशीर्वाद देवें। इस प्रमाणे बालक का नाम रखके संस्कार में आये हुए मनुष्यों को वह नाम सुनाके पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे महावामदेव्य गान करें।
तत्पश्चात् कार्यार्थ आये हुए मनुष्यों को आदर सत्कार करके विदा करे। और सब लोग जाते समय पृष्ठ 4-6 में लिखे प्रमाणे परमेश्वर की स्तुतिप्रार्थनोपासना करके बालक को आशीर्वाद देवें कि—
"हे बालक ! त्वमायुष्मान् वर्चस्वी तेजस्वी श्रीमान् भूयाः।"
हे बालक ! [तू] आयुष्मान्, विद्यावान्, धर्मात्मा, यशस्वी, पुरुषार्थी, प्रतापी, परोपकारी, श्रीमान् हो॥



॥ इति नामकरणसंस्कारविधिः समाप्तः॥


Wednesday, March 13, 2019


हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार
।। जय सियाराम।।
गर्भाधान संस्कार
[1] 
अथ गर्भाधानविधिं वक्ष्यामः 
निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्योदितो विधिः। 
—मनुस्मृति-द्वितीयाध्याये, श्लोकः 16॥ 
अर्थ—मनुष्यों के शरीर और आत्मा के उत्तम होने के लिये निषेक अर्थात् गर्भाधान से लेके श्मशानान्त अर्थात् अन्त्येष्टि=मृत्यु के पश्चात् मृतक शरीर का विधिपूर्वक दाह करने पर्यन्त 16 संस्कार होते हैं। 
शरीर का आरम्भ गर्भाधान और शरीर का अन्त भस्म कर देने तक सोलह प्रकार के उत्तम संस्कारकरने होते हैं। उनमें से प्रथम गर्भाधान-संस्कार है। 
गर्भाधान उस को कहते हैं कि जो "गर्भस्याऽऽधानं वीर्यस्थापनं स्थिरीकरणं यस्मिन् येन वा कर्मणा, तद् गर्भाधानम्।" गर्भ का धारण, अर्थात् वीर्य का स्थापन गर्भाशय में स्थिर करना जिस से होता है। उसी को गर्भाधान संस्कार कहते हैं। 
जैसे बीज और क्षेत्र के उत्तम होने से अन्नादि पदार्थ भी उत्तम होते हैं। वैसे उत्तम, बलवान् स्त्री-पुरुषों से सन्तान भी उत्तम होते हैं। इस से पूर्ण युवावस्था यथावत् ब्रह्मचर्य का पालन और विद्याभ्यास करके, अर्थात् न्यून से न्यून 16 वर्ष की कन्या और 25 पच्चीस वर्ष का पुरुष अवश्य हो और इस से अधिक वयवाले होने से अधिक उत्तमता होती है, क्योंकि विना सोलहवें वर्ष के गर्भाशय में बालक के शरीर को यथावत् बढ़ने के लिये अवकाश और गर्भ के धारण-पोषण का सामर्थ्य कभी नहीं होता और 25 पच्चीस वर्ष के विना पुरुष का वीर्य भी उत्तम नहीं होता। इस में यह प्रमाण है—
पञ्चविंशे ततो वर्षे पुमान् नारी तु षोडशे। 
समत्वागतवीर्यौ तौ जानीयात् कुशलो भिषक्॥1॥ 
—सुश्रुते सूत्रस्थाने, अ॰ 35।10॥ 
ऊनषोडशवर्षायाम् अप्राप्तः पञ्चविंशतिम्। 
यद्याधत्ते पुमान् गर्भं कुक्षिस्थः स विपद्यते॥2॥ 
जातो वा न चिरं जीवेज्जीवेद्वा दुर्बलेन्द्रियः। 
तस्मादत्यन्तबालायां गर्भाधानं न कारयेत्॥3॥ 
—सुश्रुते सूत्रस्थाने, अ॰ 10। 47-48॥ 
ये सुश्रुत के श्लोक हैं। शरीर की उन्नति वा अवनति का विधि जैसा वैद्यकशास्त्र में है, वैसा अन्यत्र नहीं। उसका मूल विधान आगे वेदारम्भ में लिखा जायेगा, अर्थात् किस-किस वर्ष में कौन-कौन धातु किस-किस प्रकार का कच्चा वा पक्का, वृद्धि वा क्षय को प्राप्त होता है, यह सब वैद्यकशास्त्र में विधान है, इसलिए गर्भाधानादि संस्कारों के करने में वैद्यकशास्त्र का आश्रय विशेष लेना चाहिये। 
अब देखिये सुश्रुतकार परम वैद्य कि जिन का प्रमाण सब विद्वान् लोग मानते हैं, वे विवाह और गर्भाधान का समय न्यून से न्यून 16 सोलह वर्ष की कन्या और 25 पच्चीस वर्ष का पुरुष अवश्य होवे, यह लिखते हैं। 
जितना सामर्थ्य 25 पच्चीसवें वर्ष में पुरुष के शरीर में होता है उतना ही सामर्थ्य 16 सोलहवें वर्ष में कन्या के शरीर में हो जाता है। इसलिए वैद्य लोग पूर्वोक्त अवस्था में दोनों को समवीर्य अर्थात् तुल्य सामर्थ्यवाले जानें॥1॥ 
सोलह वर्ष से न्यून अवस्था की स्त्री में 25 पच्चीस वर्ष से कम अवस्था का पुरुष यदि गर्भाधान करता है, तो वह गर्भ उदर में ही बिगड़ जाता है॥2॥ 
और जो उत्पन्न भी हो तो अधिक नहीं जीवे, अथवा कदाचित् जीवे भी तो उसके अत्यन्त दुर्बल शरीर और इन्द्रिय हों। इसलिये अत्यन्त बाला अर्थात् सोलह वर्ष की अवस्था से कम अवस्था की स्त्री में कभी गर्भाधान नहीं करना चाहिए॥3॥ 
चतस्रोऽवस्थाः शरीरस्य वृद्धिर्यौवनं सम्पूर्णता किञ्चित्परिहाणिश्चेति। आषोडशाद् वृद्धिराचतुर्विंशतेर्यौवनमाचत्वारिंशतः सम्पूर्णता ततः किञ्चित्परिहाणिश्चेति॥ 
अर्थ—सोलहवें वर्ष से आगे मनुष्य के शरीर के सब धातुओं की वृद्धि और पच्चीसवें वर्ष से युवावस्था का आरम्भ, चालीसवें वर्ष में युवावस्था की पूर्णता अर्थात् सब धातुओं की पूर्ण पुष्टि, और उस से आगे किञ्चित्-किञ्चित् धातु वीर्य की हानि होती है, अर्थात् 40 चालीसवें वर्ष सब अवयव पूर्ण हो जाते हैं। पुनः खान-पान से जो उत्पन्न वीर्य धातु होता है, वह कुछ-कुछ क्षीण होने लगता है। 
इस से यह सिद्ध होता है कि यदि शीघ्र विवाह करना चाहें तो कन्या 16 वर्ष की और पुरुष 25 पच्चीस वर्ष का अवश्य होना चाहिये। मध्यम समय कन्या का 20 वर्ष पर्यन्त और पुरुष का 40 चालीसवां वर्ष, और उत्तम समय कन्या का 24 चौबीस वर्ष और पुरुष का 48 अड़तालीस वर्ष पर्यन्त का है। 
जो अपने कुल की उत्तमता, उत्तम सन्तान, दीर्घायु, सुशील, बुद्धिबल पराक्रमयुक्त, विद्वान् और श्रीमान् करना चाहें, वे 16 सोलहवें वर्ष से पूर्व कन्या और 25 पच्चीसवें वर्ष से पूर्व पुत्र का विवाह कभी न करें। यही सब सुधार का सुधार, सब सौभाग्यों का सौभाग्य, और सब उन्नतियों की उन्नति करनेवाला कर्म है कि इस अवस्था में ब्रह्मचर्य रखके अपने सन्तानों को विद्या और सुशिक्षा ग्रहण करावें कि जिस से उत्तम सन्तान होवें। 
ऋतुदान का काल 
ऋतुकालाभिगामी स्यात् स्वदारनिरतस्सदा। 
पर्ववर्जं व्रजेच्चैनां तद्व्रतो रतिकाम्यया॥1॥ 
ऋतुः स्वाभाविकः स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः। 
चतुर्भिरितरैः   सार्द्धमहोभिः  सद्विगर्हितैः॥2॥ 
तासामाद्याश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या। 
त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दश रात्रयः॥3॥ 
युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु। 
तस्माद्युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदार्त्तवे स्त्रियम्॥4॥
पुमान् पुंसोऽधिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रियाः। 
समे पुमान् पुंस्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्ययः॥5॥ 
निन्द्यास्वष्टासु चान्यासु स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन्। 
ब्रह्मचार्येव भवति    यत्र तत्राश्रमे वसन्॥6॥ 
—मनुस्मृतौ अ॰ 3॥ 
अर्थ—मनु आदि महर्षियों ने ऋतुदान के समय का निश्चय इस प्रकार से किया है कि—
सदा पुरुष ऋतुकाल में स्त्री का समागम करे, और अपनी स्त्री के विना दूसरी स्त्री का सर्वदा त्याग रखे। वैसे स्त्री भी अपने विवाहित पुरुष को छोड़ के अन्य पुरुषों से सदैव पृथक् रहे। जो स्त्रीव्रत अर्थात् अपनी विवाहित स्त्री ही से प्रसन्न रहता है, जैसे कि पतिव्रता स्त्री अपने विवाहित पुरुष को छोड़ दूसरे पुरुष का संग कभी नहीं करती, वह पुरुष जब ऋतुदान देना हो, तब पर्व अर्थात् जो उन ऋतुदान के 16 सोलह दिनों में—पौर्णमासी, अमावस्या, चतुर्दशी वा अष्टमी आवे, उस को छोड़ देवे। इन में स्त्री-पुरुष रतिक्रिया कभी न करें॥1॥ 
स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल 16 सोलह रात्रि का है, अर्थात् रजोदर्शन दिन से लेके 16 सोलहवें दिन तक ऋतुसमय है। उनमें से प्रथम की चार रात्रि अर्थात् जिस दिन रजस्वला हो उस दिन से लेके चार दिन निन्दित हैं। प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रात्रि में पुरुष स्त्री का स्पर्श और स्त्री पुरुष का सम्बन्ध कभी न करे। अर्थात् उस रजस्वला के हाथ का छुआ पानी भी न पीवे। न वह स्त्री कुछ काम करे, किन्तु एकान्त में बैठी रहे। क्योंकि इन चार रात्रियों में समागम करना व्यर्थ और महारोगकारक है। रजः अर्थात् स्त्री के शरीर से एक प्रकार का विकृत उष्ण रुधिर, जैसा कि फोड़े में से पीव वा रुधिर निकलता है, वैसा है॥2॥ 
और जैसे प्रथम की चार रात्रि ऋतुदान देने में निन्दित हैं, वैसे ग्यारहवीं और तेरहवीं रात्रि भी निन्दित हैं। और बाकी रहीं दश रात्रि, सो ऋतुदान देने में श्रेष्ठ हैं॥3॥ 
जिन को पुत्र की इच्छा हो, वे छठी आठवीं दशवीं बारहवीं चौदहवीं और सोलहवीं ये छः रात्रि ऋतुदान में उत्तम जानें, परन्तु इनमें भी उत्तर-उत्तर श्रेष्ठ हैं। और जिनको कन्या की इच्छा हो, वे पांचवीं सातवीं नववीं और पन्द्रहवीं ये चार रात्रि उत्तम समझें।* इससे पुत्रार्थी युग्म रात्रियों में ऋतुदान देवे॥4॥ 
[*रात्रिगणना इसलिए की है कि दिन में ऋतुदान का निषेध है।]
पुरुष के अधिक वीर्य होने से पुत्र और स्त्री के आर्त्तव अधिक होने से कन्या, तुल्य होने से नपुंसक पुरुष वा बन्ध्या स्त्री, क्षीण और अल्पवीर्य से गर्भ का न रहना वा रहकर गिर जाना होता है॥5॥ 
जो पूर्व निन्दित 8 आठ रात्रि कह आये हैं, उन में जो स्त्री का संग छोड़ देता है, वह गृहाश्रम में वसता हुआ भी ब्रह्मचारी ही कहाता है॥6॥ 
उपनिषदि गर्भलम्भनम्॥ 
—यह आश्वलायनगृह्यसूत्र का वचन है॥ 
जैसा उपनिषद् में गर्भस्थापन-विधि लिखा है, वैसा करना चाहिए, अर्थात् पूर्वोक्त समय विवाह करके जैसा कि 16 सोलहवें और 25 पच्चीसवें वर्ष विवाह करके ऋतुदान लिखा है, वही उपनिषत् का विधान है। 
अथ गर्भाधानं स्त्रियाः पुष्पवत्याश्चतुरहादूर्ध्वं स्नात्वा 
विरुजायास्तस्मिन्नेव दिवा आदित्यं गर्भमिति॥ 
—यह पारस्करगृह्यसूत्र का वचन है॥ 
ऐसा ही गोभिलीय और शौनकगृह्यसूत्रों में भी विधान है। 
इसके अनन्तर स्त्री जब रजस्वला होकर चौथे दिन के उपरान्त पांचवें दिन स्नान कर रज-रोगरहित हो, उसी दिन (आदित्यं गर्भमिति) इत्यादि मन्त्रों से जैसा जिस रात्रि में गर्भस्थापन करने की इच्छा हो, उससे पूर्व दिन में सुगन्धादि पदार्थों सहित पूर्व सामान्यप्रकरण के लिखित प्रमाणे हवन करके निम्नलिखित मन्त्रों से आहुति देनी। यहां पत्नी पति के वाम-भाग में बैठे, और पति वेदी के पश्चिमाभिमुख पूर्व-दक्षिण वा उत्तर दिशा में यथाभीष्ट मुख करके बैठे, और ऋत्विज भी चारों दिशाओं में यथामुख बैठें— 
ओम् अग्ने प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्याः पापी लक्ष्मीस्तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥1॥ 
ओं वायो प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा 
नाथकाम उपधावामि यास्याः पापी लक्ष्मीस्तनूस्तामस्या अपजहि 
स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥2॥ 
ओं चन्द्र प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा 
नाथकाम उपधावामि यास्याः पापी लक्ष्मीस्तनूस्तामस्या अपजहि 
स्वाहा॥ इदं चन्द्राय इदन्न मम॥3॥ 
ओं सूर्य प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा 
नाथकाम उपधावामि यास्याः पापी लक्ष्मीस्तनूस्तामस्या अपजहि 
स्वाहा॥ इदं सूर्याय इदन्न मम॥4॥ 
ओम् अग्निवायुचन्द्रसूर्याः प्रायश्चित्तयो यूयं देवानां प्रायश्चित्तयः 
स्थ ब्राह्मणो वो नाथकाम उपधावामि यास्याः पापी लक्ष्मीस्तनूस्तामस्या अपहत स्वाहा॥ इदमग्निवायुचन्द्रसूर्येभ्यः इदन्न मम॥5॥ 
ओम् अग्ने प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्याः पतिघ्नी तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥6॥ 
ओं वायो प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्याः पतिघ्नी तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥7॥ 
ओं चन्द्र प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्याः पतिघ्नी तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदं चन्द्राय इदन्न मम॥8॥ 

ओं सूर्य प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्याः पतिघ्नी तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदं सूर्याय इदन्न मम॥9॥ 
ओम् अग्निवायुचन्द्रसूर्याः प्रायश्चित्तयो यूयं देवानां प्रायश्चित्तयः स्थ ब्राह्मणो वो नाथकाम उपधावामि यास्याः पतिघ्नी तनूस्तामस्या अपहत स्वाहा॥ इदमग्निवायुचन्द्रसूर्येभ्यः इदन्न मम॥10॥ 
ओम् अग्ने प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्या अपुत्र्यास्तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥11॥ 
ओं वायो प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्या अपुत्र्यास्तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥12॥ 
ओं चन्द्र प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्या अपुत्र्यास्तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदं चन्द्राय इदन्न मम॥13॥ 
ओं सूर्य प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्या अपुत्र्यास्तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदं सूर्याय इदन्न मम॥14॥ 
ओम् अग्निवायुचन्द्रसूर्याः प्रायश्चित्तयो यूयं देवानां प्रायश्चित्तयः स्थ ब्राह्मणो वो नाथकाम उपधावामि यास्या अपुत्र्यास्तनूस्तामस्या अपहत स्वाहा॥ इदमग्निवायुचन्द्रसूर्येभ्यः इदन्न मम॥15॥ 
ओम् अग्ने प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्या अपसव्यास्तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥16॥ 
ओं वायो प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्या अपसव्यास्तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥17॥ 
ओं चन्द्र प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्या अपसव्यास्तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदं चन्द्राय इदन्न मम॥18॥ 

ओं सूर्य प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्या अपसव्यास्तनूस्तामस्या अपजहि स्वाहा॥ इदं सूर्याय इदन्न मम॥19॥ 
ओम् अग्निवायुचन्द्रसूर्याः प्रायश्चित्तयो यूयं देवानां प्रायश्चित्तयः स्थ ब्राह्मणो वो नाथकाम उपधावामि यास्या अपसव्यास्तनूस्तामस्या अपहत स्वाहा॥ इदमग्निवायुचन्द्रसूर्येभ्यः इदन्न मम॥20॥ 
इन बीस मन्त्रों से बीस आहुति देनी।* 
[*ये बीस आहुति देते समय वधू अपने दक्षिण हाथ से वर के दक्षिण स्कन्ध पर स्पर्श कर रक्खे।]
और बीस आहुति करने से यत्किञ्चित् घृत बचे, वह कांसे के पात्र में ढांक के रख देवे, इसके पश्चात् भात की आहुति देने के लिये यह विधि करना। अर्थात् एक चांदी वा कांसे के पात्र में भात रखके उसमें घी दूध और शक्कर मिलाके कुछ थोड़ी देर रखके जब घृत आदि भात में एकरस हो जायें, पश्चात् नीचे लिखे एक-एक मन्त्र से एक-एक आहुति अग्नि में देवे। और स्रुवा में का शेष आगे धरे हुए कांसे के उदकपात्र में छोड़ता जावे—
ओम् अग्नये पवमानाय स्वाहा॥ 
इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥1॥ 
ओम् अग्नये पावकाय स्वाहा॥ 
इदमग्नये पावकाय इदन्न मम॥2॥ 
ओम् अग्नये शुचये स्वाहा॥ 
इदमग्नये शुचये इदन्न मम॥3॥ 
ओम् अदित्यै स्वाहा॥ 
इदमदित्यै इदन्न मम॥4॥ 
ओं प्रजापतये स्वाहा॥ 
इदं प्रजापतये इदन्न मम॥5॥ 
ओं यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्। अग्निष्टत्स्विष्टकृद्विद्यात्सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे। अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्धय स्वाहा॥ 
इदमग्नये स्विष्टकृते इदन्न मम॥6॥ 
इन छः मन्त्रों से उस भात की आहुति देवें। तत्पश्चात् पूर्व सामान्यप्रकरणोक्त 22-23 पृष्ठलिखित आठ मन्त्रों से अष्टाज्याहुति देनी। उन 8 आठ मन्त्रों से 8 आठ तथा निम्नलिखित मन्त्रों से भी आज्याहुति देवें—
विष्णुर्योनिं    कल्पयतु     त्वष्टा रूपाणि पिंशतु।
आ सिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते स्वाहा॥1॥ 
गर्भं धेहि सिनीवालि गर्भं    धेहि सरस्वति। 
गर्भं ते अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजा स्वाहा॥2॥ 
हिरण्ययी     अरणी यं     निर्मन्थतो    अश्विना। 
तं ते गर्भं हवामहे दशमे मासि सूतवे स्वाहा॥3॥
—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 184॥ 
रेतो मूत्रं वि जहाति योनिं प्रविशदिन्द्रियम्। गर्भो जरायुणावृतऽउल्वं जहाति जन्मना। ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्धसऽइन्द्रस्येद्रियमिदं पयोऽमृतं मधु स्वाहा॥4॥ 
यत्ते सुसीमे हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्। वेदाहं तन्मां तद्विद्यात्॥ पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् स्वाहा॥5॥ 
—यजुर्वेदे॥ 
यथेयं  पृथिवी मही   भूतानां गर्भमादधे। 
एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे स्वाहा॥6॥ 
यथेयं पृथिवी मही दाधारेमान् वनस्पतीन्। 
एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे स्वाहा॥7॥ 
यथेयं पृथिवी मही दाधार पर्वतान् गिरीन्। 
एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे स्वाहा॥8॥ 
यथेयं पृथिवी मही दाधार विष्ठितं जगत्। 
एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे स्वाहा॥9॥ 
—अथर्व॰ कां॰ 6। सू॰ 17॥ 
इन 9 मन्त्रों से नव आज्य और मोहनभोग की आहुति देके, नीचे लिखे मन्त्रों से भी चार घृताहुतिदेवें—
ओं भूरग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥1॥ 
ओं भुवर्वायवे स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥2॥
ओं स्वरादित्याय स्वाहा॥ इदमादित्याय इदन्न मम॥3॥ 
ओम् अग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम॥4॥ 
पश्चात् नीचे लिखे मन्त्रों से घृत की दो आहुति देनी—
ओम् अयास्यग्नेर्वषट्कृतं यत्कर्मणोऽत्यरीरिचं देवा गातुविदः 
स्वाहा॥ इदं देवेभ्यो गातुविद्भ्यः इदन्न मम॥1॥
ओं प्रजापतये स्वाहा॥ इदं प्रजापतये इदन्न मम॥2॥ 
इन कर्म और आहुतियों के पश्चात् पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे (ओं यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं॰) इस मन्त्र से एक स्विष्टकृत् आहुति घृत की देवें। 
जो इन मन्त्रों से आहुति देते समय प्रत्येक आहुति के स्रुवा में शेष रहे घृत को आगे धरे हुए काँसे के उदकपात्र में इकट्ठा करते गए हों, जब आहुति हो चुकें, तब उन आहुतियों के शेष घृत को वधू लेके स्नानघर में जाकर उस घी का पग के नख से लेके शिरपर्यन्त सब अंगों पर मर्दन करके स्नान करे। तत्पश्चात् शुद्ध वस्त्र से शरीर पोंछ, शुद्ध वस्त्र धारण करके कुण्ड के समीप आवे। तब दोनों वधू-वर कुण्ड की प्रदक्षिणा करके सूर्य का दर्शन करें। उस समय—

ओम् आदित्यं गर्भं पयसा समङ्धि सहस्रस्य प्रतिमां 
विश्वरूपम्। परिवृङ्धि हरसा माभिमंस्थाः शतायुषं कृणुहि 
चीयमानः॥1॥ 
सूर्यो नो दिवस्पातु वातो अन्तरिक्षात्। अग्निर्नः पार्थिवेभ्यः॥2॥ 
जोषा सवितर्यस्य ते हरः शतं सवाँ अर्हति। 
पाहि नो दिद्युतः पतन्त्याः॥3॥ 
चक्षुर्नो देवः सविता चक्षुर्न उत पर्वतः। चक्षुर्धाता दधातु नः॥4॥ 
चक्षुर्नो धेहि चक्षुषे चक्षुर्विख्यै तनूभ्यः। सं चेदं वि च पश्येम॥5॥ 
सुसंदृशं त्वा वयं प्रति पश्येम सूर्य। वि पश्येम नृचक्षसः॥6॥ 
इन मन्त्रों से परमेश्वर का उपस्थान करके, वधू—
ओम् *अमुकगोत्रा शुभदा अमुक**दा अहं भो भवन्त- 
मभिवादयामि। 
[इस ठिकाने वर के गोत्र अथवा वर के कुल का नामोच्चारण करे। * इस ठिकाने वधू अपना नाम उच्चारण करे।]
ऐसा वाक्य बोलके अपने पति को वन्दन अर्थात् नमस्कार करे। 
तत्पश्चात् स्वपति के पिता पितामहादि और जो वहां अन्य माननीय पुरुष तथा पति की माता तथा अन्य कुटुम्बी और सम्बन्धियों की वृद्ध स्त्रियां हों, उन को भी इसी प्रकार वन्दन करे। 
इस प्रमाणे वधू वर के गोत्र की हुए अर्थात् वधू पत्नीत्व और वर पतित्व को प्राप्त हुए, पश्चात् दोनों पति-पत्नी शुभासन पर पूर्वाभिमुख वेदी के पश्चिम भाग में बैठके वामदेव्यगान करें। 
तत्पश्चात् यथोक्त* भोजन दोनों जने करें। और पुरोहितादि सब मण्डली को सम्मानार्थ यथाशक्ति भोजन कराके आदर-सत्कारपूर्वक सब को विदा करें। 
[*उत्तम सन्तान करने का मुख्य हेतु यथोक्त वधू वर के आहार पर निर्भर है। इसलिये पति-पत्नी अपने शरीर-आत्मा की पुष्टि के लिए बल और बुद्धि आदि की वर्द्धक सर्वौषधि का सेवन करें। सर्वौषधि ये हैं—
दो खण्ड आँबाहलदी, दूसरी खाने की हल्दी, चन्दन, मुरा (यह नाम दक्षिण में प्रसिद्ध है), कुष्ठ, जटामांसी, मोरबेल (यह भी नाम दक्षिण में प्रसिद्ध है), शिलाजित्, कपूर, मुस्ता, भद्रमोथ।
इन सब ओषिधियों का चूर्ण करके, सब समभाग लेके उदुम्बर के काष्ठपात्र में गाय के दूध के साथ मिला उन का दही जमा और उदुम्बर ही के लकड़े की मंथनी से मंथन करके उस में से मक्खन निकाल, उस को ताय, घृत करके उस में सुगन्धित द्रव्य केशर कस्तूरी, जायफल, इलायची, जावित्री मिलाके अर्थात् सेर-भर दूध में छटांक भर पूर्वोक्त सर्वौषधि मिला सिद्धकर घी हुए पश्चात् एक सेर में एक रत्ती कस्तूरी और एक मासा केशर और एक-एक मासा जायफलादि भी मिलाके नित्य प्रातःकाल उस घी में से 32 पृष्ठ में लिखे प्रमाणे आघारावाज्यभागाहुति 4 चार और पृष्ठ 32 में लिखे हुए (विष्णुर्योनिं॰) इत्यादि 7 सात मन्त्रों के अन्त में स्वाहा शब्द का उच्चारण करके जिस रात्रि में गर्भस्थापन क्रिया करनी हो, उसके दिन में होम करके, उसी घी को दोनों जने खीर अथवा भात के साथ मिलाके यथारुचि भोजन करें।
इस प्रकार गर्भस्थापन करें तो सुशील, विद्वान्, दीर्घायु, तेजस्वी, सुदृढ़ और नीरोग पुत्र उत्पन्न होवे और यदि कन्या की इच्छा हो तो जल में चावल पका पूर्वोक्त प्रकार घृत, गूलर के एक पात्र में जमाए हुए दही के साथ भोजन करने से उत्तम गुणयुक्त कन्या भी होवे, क्योंकि—
"आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः॥"
—यह छान्दोग्य॰ का वचन है।
अर्थात् शुद्ध आहार, जो कि मद्यमांसादिरहित घृत, दुग्धादि, चावल, गेहूं आदि के करने से अन्तःकरण की शुद्धि, बल, पुरुषार्थ, आरोग्य और बुद्धि की प्राप्ति होती है। इसलिए पूर्ण युवावस्था में विवाह कर इस प्रकार विधि कर प्रेमपूर्वक गर्भाधान करें तो सन्तान और कुल नित्यप्रति उत्कृष्टता कोप्राप्त होते जायें। जब रजस्वला होने के समय में 12-13 दिन शेष रहें, तब शुक्ल पक्ष में 12 दिन तक पूर्वोक्त घृत मिलाके इसी खीर का भोजन करके 12 दिन का व्रत भी करें। और मिताहारी होकर ऋतु-समय में पूर्वोक्त रीति से गर्भाधान क्रिया करें तो अत्युत्तम सन्तान होवे। जैसे सब पदार्थों को उत्कृष्ट करने की विद्या है, वैसे सन्तान को उत्कृष्ट करने की यही विद्या है। इस पर मनुष्य लोग बहुत ध्यान देवें। क्योंकि इस के न होने से कुल की हानि, नीचता, और होने से कुल की वृद्धि और उत्तमता अवश्य होती है।] 
इसके पश्चात् रात्रि में नियत समय पर जब दोनों का शरीर आरोग्य, अत्यन्त प्रसन्न और दोनों में अत्यन्त प्रेम बढ़ा हो, उस समय गर्भाधान क्रिया करनी। गर्भाधान क्रिया का समय प्रहर रात्रि के गये पश्चात् प्रहर रात्रि रहे तक है। जब वीर्य गर्भाशय में जाने का समय आवे, तब दोनों स्थिरशरीर, प्रसन्नवदन, मुख के सामने मुख, नासिका के सामने नासिकादि, सब सूधा शरीर रखें। वीर्य का प्रक्षेप पुरुष करे। जब वीर्य स्त्री के शरीर में प्राप्त हो, उस समय अपना पायु मूलेन्द्रिय और योनीन्द्रिय को ऊपर संकोच और वीर्य को खैंचकर स्त्री गर्भाशय में स्थित करे। तत्पश्चात् थोड़ा ठहर के स्नान करे। यदि शीतकाल हो तो प्रथम केशर, कस्तूरी, जायफल, जावित्री, छोटी इलायची डाल गर्म कर रखे हुए शीतल दूध का यथेष्ट पान करके पश्चात् पृथक्-पृथक् शयन करें। 
यदि स्त्रीपुरुष को ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाये कि गर्भ स्थिर हो गया तो उसके दूसरे दिन, और जो गर्भ रहे का दृढ़ निश्चय न हो तो एक महीने के पश्चात् रजस्वला होने के समय स्त्री रजस्वला न हो तो निश्चित जानना कि गर्भ स्थित हो गया है। 
अर्थात् दूसरे दिन वा दूसरे महीने के आरम्भ में निम्नलिखित मन्त्रों से आहुति देवें*— 
[*यदि दो ऋतुकाल व्यर्थ जायें अर्थात् दो वार दो महीनों में गर्भाधान क्रिया निष्फल हो जाय, गर्भस्थिति न होवे तो तीसरे महीने में ऋतुकाल समय जब आवे, तब पुष्यनक्षत्रयुक्त ऋतुकाल दिवस में प्रथम प्रातःकाल उपस्थित होवे, तब प्रथम प्रसूता गाय का दही दो मासा और यव के दाणों को सेक के पीसके दो मासा लेके इन दोनों को एकत्र करके, पत्नी के हाथ में देके उस से पति पूछे—"किं पिबसि" ? इस प्रकार तीन वार पूछे, और स्त्री भी अपने पति को "पुंसवनम्" इस वाक्य को तीन वार बोलके उत्तर देवे। और उस का प्राशन करे। इसी रीति से पुनः-पुनः तीन वार विधि करना। तत्पश्चात् सङ्खाहूली व भटकटाई ओषधि को जल में महीन पीसके उस का रस कपड़े में छानके पति पत्नी के दाहिने नाक के छिद्र में सिञ्चन करे। और पति—
ओम् इयमोषधी त्रायमाणा सहमाना सरस्वती।
अस्या अहं बृहत्याः पुत्रः पितुरिव नाम जग्रभम्॥
इस मन्त्र से जगन्नियन्ता परमात्मा की प्रार्थना करके यथोक्त ऋतुदान विधि करें। यह सूत्रकार का मत है।]

यथा वातः पुष्करिणीं समिङ्गयति सर्वतः। 
एवा ते गर्भ एजतु निरैतु दशमास्यः स्वाहा॥1॥ 
यथा वातो यथा वनं यथा समुद्र एजति। 
एवा त्वं दशमास्य सहावेहि जरायुणा स्वाहा॥2॥ 
दश   मासाञ्छशयानः      कुमारो अधि  मातरि । 
निरैतु जीवो अक्षतो जीवो जीवन्त्या अधि स्वाहा॥3॥ 
—ऋ॰ मं॰ 5। सू॰ 78। मं॰ 7-9॥ 
एजतु  दशमास्यो गर्भो      जरायुणा सह। 
यथायं वायुरेजति यथा      समुद्रऽ एजति। 
एवायं दशमास्योऽ अस्रज्जरायुणा सह स्वाहा॥1॥ 
यस्यै ते यज्ञियो गर्भो यस्यै योनिर्हिरण्ययी। 
अङ्गान्यह्रुता यस्य तं मात्रा समजीगमं स्वाहा॥2॥ 
—यजुः॰ अ॰ 8। मं॰ 28, 29॥ 
पुमांसौ मित्रावरुणौ पुमांसावश्विनावुभौ। 
पुमानग्निश्च वायुश्च पुमान् गर्भस्तवोदरे स्वाहा॥1॥ 
पुमानग्निः पुमानिन्द्रः पुमान् देवो बृहस्पतिः। 
पुमांसं पुत्रं विन्दस्व तं पुमाननु जायतां स्वाहा॥2॥ 
—सामवेदे॥ 
इन मन्त्रों से आहुति देकर, पूर्वलिखित सामान्यप्रकरण की शान्त्याहुति देके, पुनः 23 पृष्ठ में लिखे प्रमाणे पूर्णाहुति देवें। पुनः स्त्री के भोजन-छादन का सुनियम करे। कोई मादक मद्य आदि, रेचक हरीतकी आदि, क्षार अतिलवणादि, अत्यम्ल अर्थात् अधिक खटाई, रूक्ष चणे आदि, तीक्ष्ण अधिक लालमिर्ची आदि स्त्री कभी न खावे। किन्तु घृत, दुग्ध, मिष्ट, सोमलता अर्थात् गुडूच्यादि ओषधि, चावल, मिष्ट दधि, गेहूं, उर्द, मूंग, तूअर आदि अन्न, और पुष्टिकारक शाक खावें। उस में ऋतु-ऋतु के मसाले—गर्मी में ठण्डे सफेद इलायची आदि, और सर्दी में केशर कस्तूरी आदि डालकर खाया करें। युक्ताहार विहार सदा किया करें। 
दूध में सुंठी और ब्राह्मी ओषधि का सेवन स्त्री विशेष किया करे, जिस से सन्तान अतिबुद्धिमान् रोगरहित शुभ गुण कर्म स्वभाववाला होवे॥

॥ इति गर्भाधानविधिः समाप्तः॥