Friday, May 8, 2020

प्रश्न ज्योतिष

प्रश्न ज्योतिष
भविष्य फल जान ने के सबसे श्रेष्ठ विधि प्रश्न ज्योतिष । बृहत जातक में इसी विधि को नष्ट जन्मांग और नष्ट जातक कहते है । जीन लोगो को अपने जन्म के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। उनको नष्ट जातक कहते है। अब बात यह आती है कि भविष्य तो उनका भी ही जिनकी जन्म कुंडली नहीं है । अब जिनकी जन्म कुंडली नहीं है । उनके जीवन के प्रश्न का समाधान करने के लिए प्रश्न ज्योतिष है यह ऐसी अनुपम विधि जिसके द्वारा एक दैवज्ञ ज्योतिष यह तक पता लगा सकता है कि सामने वाले के मन में क्या बात है। खैर में यहां उस विधि चर्चा नहीं करूंगा उस विधि के बारे मैं हम फिर कभी जानेंगे अभी हम बात करते है कि सबसे पहले यह जान ले की प्रश्न करने का विधान क्या है। प्रश्न करने के लिए जो भी जाए वह पहले यह जान लें यह कोई खेल नहीं कभी भी खेल खेल में प्रश्न ना करे अन्यथा ग्रह उनके साथ भी खेल कर सकते है क्योंकि खेल खेल में प्रश्न करने अर्थ है कि उन परमेश्वर परब्रह्म जिसने यह विद्या बताई है उन परमेश्वर उन तपस्वी ऋषि मुनियों उपहास करना। अत इसका भयंकर परिणाम मिल सकता है।क्यों की यह विद्या उन शुद्ध चित वाले को लिए है जो उन परमेश्वर तथा हमारे शास्त्र तथा महर्षि द्वारा विद्या पर पूरा विश्वास हो। क्योंकि शास्त्र कहता है कि मंत्र,ज्योतिष, गुरु, ब्राह्मण तथा देवता उतना ही फल देते हैं जितना और जैसा आप का विश्वास होता है।
1) प्रश्न ऐसा ही करे जो आपके दिमाग में बार बार आता हो तथा कई दिनों से आपके मन में हो तथा अभी तक आपने किसी को बताया नहीं हो क्योंकि मन की बात उन्ही लोगो को बतानी चाहिए जिनके अंदर दैवज्ञ के सारे लक्षण हो अन्यथा जैसे तैसे किसी को भी अपनी मन  की बात नहीं बतानी चाहिए क्योंकि ऐसा करने से आप की मुश्किल बढ़ सकती है । कहीं कहीं तो यह भी कहा है कि जब तक अपना लक्ष्य प्राप्त ना हो तब तक दैवज्ञ पुरूषों के अलावा किसी को ना बतावे।2) अब दूसरी बात करते है। प्रश्न करने के लिए जब भी जाए तो अपने साथ कुछ उपहार अवश्य ही ले जाए और साथ में यथा शक्ति दक्षिणा भी ले जाए। शास्त्र में तो नरियेल ,वस्त्र आदि बहुत कुछ ले जाने की बात कही है परन्तु अभी के समय के अनुसार जो भी यथा शक्ति संभव हो वह ले के जाय।3) एक समय में एक ही प्रश्न करे ।
यह तो थे प्रश्न करने के नियम अब हम सर्व जन सुलभ प्रश्न ज्योतिष का कुछ शब्दों में वर्णन करते है । की यह केसे काम करता है । जैसे बच्चे का जन्म नव महीना मा के गर्भ में रहता है और जब वह बाहर की सृष्टि में आता है ।वैसे ही प्रश्न दीर्घ काल तक मानसिक गर्भ में रहता है।और जब वह प्रश्न मुख द्वारा जन्म ले कर ध्वनि रूप में बाहर प्रकट होता है तो प्रश्न कुंडली बनती है।जब भी प्रश्न करता आवे और प्रश्न करे तो उसी समय और स्थान के हिसाब से जन्म कुंडली तरह प्रश्न कुंडली का निर्माण करे जैसे जन्म कुंडली में जन्म लग्न होता है वैसे ही प्रश्न कुंडली में प्रश्न लग्न जन्म कुंडली में जन्म लग्न जातक शरीर है वैसे ही प्रश्न लग्न प्रश्न और प्रश्न करता शरीर समझें यदि जातक कहीं दूर है और ज्योतिष दूर है तब जहा से प्रश्न करता बोल रहा होता है उसी स्थान और समय के हिसाब से ही प्रश्न कुंडली का निर्माण करे। अन्यथा भविष्य फल गलत हो जायेगा।
प्रश्न कुंडली में जो लग्न होगा प्रश्न करता उसी वर्ण का होगा अर्थात प्रश्न लग्न जो राशि होगी उसी के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र होगा । यदि वह प्रश्न लग्न की राशि में कोई ग्रह बैठा हो तो उसके अनुसार ग्रह का बलाबल देखके वर्ण जानना चाहिए ।
चन्द्र मा जिस राशि भाव में यथा ग्रह के साथ हो उसी विचार और प्रश्न को लेकर आया समझें।
चन्द्रमा मनसो जातः।
अर्थात चंद्रमा मन हो सो मन जैसा हो वैसा ही प्रश्न हो। प्रश्न कुंडली में प्रश्न लग्न राशि की दिशा चन्द्र मा की स्थिति सूर्य की स्थिति तथा नवांश का बल दशा महादशा आदि आदि बहुत कुछ देखा जाता है उसके बाद में सही जवाब मिल सकता है।जो एक श्रेष्ठ ज्योतिष ही दे सकता है। और उसी को दैवज्ञ कहते इतना जटिल गणित प्रकिया तथा पूर्ण फलादेश करने का ज्ञान बहुत ही गूढ़ व गहरा होता है । फिर भी आज कल बहुत से लोग जो ज्योतिष के बारे में हमारे महान वैज्ञानिक ऋषिओ के बारे में कुछ नहीं जानते वैसे अज्ञानी लोग ज्योतिष को अंधविश्वास कह देते है। कितने शर्म की बात है जो अपने विज्ञान को जानते नहीं और। जो इसी विज्ञान से जन्मा आज का विज्ञान को मानते हो । जिनको नहीं पता कि astrology The Father of science
वाचक मित्रो को ज्योतिषाचार्य विशाल देवमुरारी का सादर प्रणाम।
अस्तु।     ।। जय सियाराम।।

Thursday, March 21, 2019

ग्रहों के खराब होने के लक्षण सिर्फ दो मिनिट में जानिए आपका कोनसा ग्रह खराब है।

Astrology the father of science
मैं ज्योतिष आचार्य विशाल देवमुरारी आपका हार्दिक स्वागत करता हूं। बगैर जन्मकुंली के केसे जाने आपका कोनसा ग्रह खराब है?
नौ ग्रह खराब होने के लक्षण
१: सूर्य
सामाजिक अपयश, पिता के साथ कलह या वैचारिक मतभेद, आंख, हृदय या पेट का कोई रोग होना इस बात को दर्शाता है कि जातक की कुंडली में सूर्य अशुभ स्थिति में है। 
२: चन्द्र
जीवन में असंतुष्ट रहना, कमजोर चंद्रमा घर में पानी के नल्कों या कुंओं का सूख जाना, पालतू दुधारू पशु की मृत्यु हो जाना, माता को कष्ट होना, मन में बार-बार आत्महत्या करने के विचारों का जन्म लेना भी कमजोर चंद्रमा की ओर इशारा करता है।
३: मंगल
मंगल आए दिन कोई ना कोई दुर्घटना होना, घर के बिजली के समान जल्दी खराब हो जाना, विशेषकर जिस कमरे में व्यक्ति रहता है वहां मौजूद बिजली के उपकरणों का कम समय में ही खराब हो जाना, मंगल दोष की वजह से होता है। मंगल के दोषी होने पर रक्त समस्या, भाई से विवाद और अत्याधिक क्रोध जैसी स्थिति जन्म लेती है। 
४:बुध 
बुध ज्योतिष विद्या में बुध को व्यापार और स्वास्थ्य का कारक बताया गया है। जिस व्यक्ति की कुंडली में बुध अशुभ या कमजोर स्थिति में होता है उस व्यक्ति के दांत कमजोर रहते हैं। उसकी सूंघने की शक्ति कम हो जाती है और एक समय के बाद उसे गुप्त रोग होने की संभावना भी प्रबल हो जाती है।
५: गुरु


बृहस्पति अगर किसी विद्यार्थी को पढ़ाई में समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, किसी के असमय बाल झड़ने शुरू हो गए हैं, अपमान का शिकार होना पड़ रहा है, व्यापार की स्थिति बदतर होती जा रही है, घर में कलह का माहौल बन गया है तो निश्चित तौर पर यह कमजोर बृहस्पति की ओर इशारा करता है। 
६:शुक्र 
ज्योतिष के अनुसार शुक्र ग्रह मौज-मस्ती, भोग-विलास और आलीशान जीवन व्यतीत करवाता है। लेकिन अगर किसी व्यक्ति की कुंडली में शुक्र सही नहीं है तो उस व्यक्ति के मन में भटकाव अवश्य रहेगा। वह अपने हाथ से धन का नाश करता है, उसे चर्म रोग और स्वप्न दोष होने की संभावना रहती है। 
७:शनि 
शनि धीमी गति का ग्रह है, अगर किसी की कुंडली में शनि पीड़ित या कमजोर होता है तो उस व्यक्ति का हर कार्य बहुत आराम से होता है। अगर आपके मकान का कोई हिस्सा गिर गया है या टूट गया है तो यह कमजोर शनि की ओर इशारा करता है। वाहन से दुर्घटना या धड़ के निचले हिस्से, विषेकर जांघों के हिस्से में परेशानी कमजोर शनि की वजह से होती है।
८ :राहु 
राहु शक, संदेह, मानसिक परेशानियां, आपसी तालमेल में रुकावट, बात-बात पर क्रोधित हो जाना, गुस्से एमं अपशब्द या गाली-गलौज करना, ये सब राहु के परिणाम हैं। कुंडली में राहु के अशुभ होने से हाथ के नाखून टूटने लगते हैं और पेट से संबंधित परेशानियां लग जाती हैं वाहन से दुर्घटना, मस्तिष्क की पीड़ा, दिमागी संतुलन बिगड़ जाना, भोजन या किसी खाद्य पदार्थ में अकसर बाल दिखना, सामाजिक मानहानि होना, ये सभी राहु ग्रह के दुष्प्रभाव हैं।
९: केतु
 जब किसी व्यक्ति की कुंडली में केतु अशुभ फलदायी होता है तो उसे आर्थिक नुकसान के साथ-साथ चर्म रोग भी हो सकता है। वह व्यक्ति खुद अपने लिए ही गलत धारण बना लेता है जो उसे नुकसान पहुंचाती है।

अपनी जन्म कुंडली का विश्लषण करवाने के लिए संपर्क करे
ज्योतिष आचार्य 
विशाल देवमुरारी
WhatsApp no ७०१६०६८६३९
ADIPUR Kutch
आप नीचे कॉमेंट भी कर सकते है
<script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
<script>
  (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({
    google_ad_client: "ca-pub-3232978171091546",
    enable_page_level_ads: true
  });
</script>

Tuesday, March 19, 2019

निष्क्रमण संस्कार


[6]
अथ निष्क्रमणसंस्कारविधिं वक्ष्यामः
‘निष्क्रमण’ संस्कार उस को कहते हैं कि जो बालक को घर से जहां का वायुस्थान शुद्ध हो, वहां भ्रमण कराना होता है। उस का समय जब अच्छा देखें तभी बालक को बाहर घुमावें। अथवा चौथे मास में तो अवश्य भ्रमण करावें। इस में प्रमाण—
चतुर्थे मासि निष्क्रमणिका सूर्यमुदीक्षयति—तच्चक्षुरिति॥
—यह आश्वलायन गृह्यसूत्र का वचन है॥
जननाद्यस्तृतीयो ज्यौत्स्नस्तस्य तृतीयायाम्॥
—यह पारस्कर गृह्यसूत्र में भी है॥
अर्थ—निष्क्रमण संस्कार के काल के दो भेद हैं—एक बालक के जन्म के पश्चात् तीसरे शुक्लपक्ष की तृतीया, और दूसरा चौथे महीने में जिस तिथि में बालक का जन्म हुआ हो, उस तिथि में यह संस्कार करे।
उस संस्कार के दिन प्रातःकाल सूर्योदय के पश्चात् बालक को शुद्ध जल से स्नान करा, शुद्ध सुन्दर वस्त्र पहिनावे। पश्चात् बालक को यज्ञशाला में बालक की माता ले आके पति के दक्षिण पार्श्व में होकर, पति के सामने आकर, बालक का मस्तक उत्तर और छाती ऊपर अर्थात् चित्ता रखके पति के हाथ में देवे। पुनः पति के पीछे की ओर घूमके बांयें पार्श्व में पश्चिमाभिमुख खड़ी रहे।
ओं यत्ते सुसीमे हृदयं हितमन्तः प्रजापतौ।
वेदाहं मन्ये तद् ब्रह्म माहं पौत्रमघं निगाम्॥1॥
ओं यत् पृथिव्या अनामृतं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्।
वेदामृतस्याहं  नाम   माहं   पौत्रमघं रिषम्॥2॥
ओम् इन्द्राग्नी शर्म यच्छतं प्रजायै मे प्रजापती।
यथायं न     प्रमीयेत      पुत्रो   जनित्र्या अधि॥3॥
इन तीन मन्त्रों से परमेश्वर की आराधना करके पृष्ठ 4-23 में लिखे प्रमाणे परमेश्वरोपासना, स्वस्तिवाचन, शान्तिकरण आदि और सामान्यप्रकरणोक्त समस्त विधि कर और पुत्र को देखके इन निम्नलिखित तीन मन्त्रों से पुत्र के शिर को स्पर्श करे—
ओम् अङ्गादङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे।
आत्मा वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम्॥1॥
ओं प्रजापतेष्ट्वा हिङकारेणावजिघ्रामि।
सहस्रायुषाऽसौ जीव शरदः शतम्॥2॥
गवां   त्वा   हिङकारेणावजिघ्रामि।
सहस्रायुषाऽसौ जीव शरदः शतम्॥3॥
तथा निम्नलिखित मन्त्र बालक के दक्षिण कान में जपे—
अस्मे प्र यन्धि मघवन्नृजीषिन्निन्द्र रायो विश्ववारस्य भूरेः।
अस्मे शतं शरदो जीवसे धा अस्मे वीराञ्छश्वत इन्द्र शिप्रिन्॥1॥
इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चित्तिं दक्षस्य सुभगत्वमस्मे।
पोषं रयीणामरिष्टिं तनूनां स्वाद्मानं वाचः सुदिनत्वमह्नाम्॥2॥
इस मन्त्र को वाम कान में जपके पत्नी की गोद में उत्तर दिशा में शिर और दक्षिण दिशा में पग करके बालक को देवे। और मौन करके स्त्री के शिर का स्पर्श करे। तत्पश्चात् आनन्दपूर्वक उठके बालक को सूर्य का दर्शन करावे। और निम्नलिखित मन्त्र वहां बोले—
ओं तचक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥
इस मन्त्र को बोलके थोड़ा सा शुद्ध वायु में भ्रमण कराके यज्ञशाला में लावे। सब लोग—
"त्वं जीवं शरदः शतं वर्धमानः"॥
इस वचन को बोलके आशीर्वाद देवें।
तत्पश्चात् बालक के माता और पिता संस्कार में आये हुए स्त्रियों और पुरुषों का यथायोग्य सत्कार करके विदा करें। तत्पश्चात् जब रात्रि में चन्द्रमा प्रकाशमान हो, तब बालक की माता लड़के को शुद्ध वस्त्र पहिना दाहिनी ओर से आगे आके पिता के हाथ में बालक को उत्तर की ओर शिर और दक्षिण की ओर पग करके देवे। और बालक की माता दाहिनी ओर से लौट कर बाईं ओर आ, अञ्जलि में जल भरके चन्द्रमा के सम्मुख खड़ी रहके—
ओं यददश्चन्द्रमसि कृष्णं पृथिव्या हृदयं श्रितम्।
तदहं विद्वांस्तत् पश्यन् माहं पौत्रमघं रुदम्॥
इस मन्त्र से परमात्मा की स्तुति करके जल को पृथिवी पर छोड़ देवे।
तत्पश्चात् बालक की माता पुनः पति के पृष्ठ की ओर से पति के दाहिने पार्श्व से सम्मुख आके, पति से पुत्र को लेके, पुनः पति के पीछे होकर बाईं ओर बालक का उत्तर की ओर शिर दक्षिण की ओर पग रखके खड़ी रहे और बालक का पिता जल की अञ्जलि भर (ओं यददश्च॰) इसी मन्त्र से परमेश्वर की प्रार्थना करके जल को पृथ्वी पर छोड़के दोनों प्रसन्न होकर घर में आवें॥

॥ इति निष्क्रमणसंस्कारविधिः समाप्तः॥


अन्नप्राशन संस्कार


[7]
अथान्नप्राशनविधिं वक्ष्यामः
‘अन्नप्राशन’ संस्कार तभी करे, जब बालक की शक्ति अन्न पचाने योग्य होवे। इस में आश्वलायन गृह्यसूत्र का प्रमाण—
षष्ठे मास्यन्नप्राशनम्॥1॥
घृतौदनं तेजस्कामः॥2॥
दधिमधुघृतमिश्रितमन्नं प्राशयेत्॥3॥
—इसी प्रकार पारस्करगृह्यसूत्रादि में भी है॥
छठे महीने बालक को अन्नप्राशन करावे। जिस को तेजस्वी बालक करना हो, वह घृतयुक्त भात अथवा दही सहत और घृत तीनों भात के साथ मिलाके निम्नलिखित विधि से अन्नप्राशन करावे। अर्थात् पूर्वोक्त पृष्ठ 4-24 में कहे हुए सम्पूर्ण विधि को करके जिस दिन बालक का जन्म हुआ हो, उसी दिन यह संस्कार करे। और निम्न लिखे प्रमाणे भात सिद्ध करे—
ओं प्राणाय त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥1॥
ओम् अपानाय त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥2॥
ओं चक्षुषे त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥3॥
ओं श्रोत्राय त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥4॥
ओम् अग्नये स्विष्टकृते त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥5॥
इन पांच मन्त्रों का यही अभिप्राय है कि चावलों को धो शुद्ध करके अच्छे प्रकार बनाना और पकते हुए भात में यथायोग्य घृत भी डाल देना।
जब अच्छे प्रकार पक जावें तब उतार थोड़े ठण्डे हुए पश्चात् होमस्थाली में—
ओं प्राणाय त्वा जुष्टं निर्वपामि॥1॥
ओम् अपानाय त्वा जुष्टं निर्वपामि॥2॥
ओं चक्षुषे त्वा जुष्टं निर्वपामि॥3॥
ओं श्रोत्राय त्वा जुष्टं निर्वपामि॥4॥
ओम् अग्नये स्विष्टकृते त्वा जुष्टं निर्वपामि॥5॥
इन पांच मन्त्रों से कार्यकर्त्ता यजमान और पुरोहित तथा ऋत्विजों को पात्र में पृथक्-पृथक् देके पृष्ठ 19-20 में लिखे प्रमाणे अग्न्याधान, समिदाधानादि करके प्रथमआघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार मिलके 8 आठ घृत की आहुति देके, पुनः उस पकाये हुए भात की आहुति नीचे लिखे हुए मन्त्रों से देवे—
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु स्वाहा॥
इदं वाचे इदन्न मम॥1॥
वाजो नोऽअद्य प्र सुवाति दानं वाजो देवाँऽ ऋतुभिः कल्पयाति।
वाजो हि मा सर्ववीरं जजान विश्वाऽआशा वाजपतिर्जयेयं
स्वाहा॥ इदं वाचे वाजाय इदन्न मम॥2॥
इन दो मन्त्रों से दो आहुति देवें। तत्पश्चात् उसी भात में और घृत डालके—
ओं प्राणेनान्नमशीय स्वाहा॥ इदं प्राणाय इदन्न मम॥1॥
ओमपानेन गन्धानशीय स्वाहा॥ इदमपानाय इदन्न मम॥2॥
ओं चक्षुषा रूपाण्यशीय स्वाहा॥ इदं चक्षुषे इदन्न मम॥3॥
ओं श्रोत्रेण यशोऽशीय स्वाहा॥ इदं श्रोत्राय इदन्न मम॥4॥
इन मन्त्रों से 4 चार आहुति देके, (ओं यदस्य कर्मणो॰) पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे स्विष्टकृत् आहुति एक देवे। तत्पश्चात् पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे व्याहृति आहुति 4 चार, और पृष्ठ 22-23 में लिखे प्रमाणे (ओं त्वन्नो॰) इत्यादि से 8 आठ आज्याहुति मिलके 12 बारह आहुति देवे।
उस के पीछे आहुति से बचे हुए भात में दही मधु और उस में घी यथायोग्य किञ्चित्-किञ्चित् मिलाके, और सुगन्धियुक्त और भी चावल बनाये हुए थोड़े से मिलाके बालक के रुचि प्रमाणे—
ओम् अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः।
प्रप्र दातारं तारिषऽ ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥
इस मन्त्र को पढ़के थोड़ा-थोड़ा पूर्वोक्त भात बालक के मुख में देवे।
यथारुचि खिला, बालक का मुख धो और अपने हाथ धोके पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे महावामदेव्यगान करके, जो बालक के माता-पिता और अन्य वृद्ध स्त्री-पुरुष आये हों, वे परमात्मा की प्रार्थना करके—
"त्वमन्नपतिरन्नादो वर्धमानो भूयाः॥"
इस वाक्य से बालक को आशीर्वाद देके, पश्चात् संस्कार में आये हुए पुरुषों का सत्कार बालक का पिता और स्त्रियों का सत्कार बालक की माता करके सब को प्रसन्नतापूर्वक विदा करें॥
॥ इत्यन्नप्राशनसंस्कारविधिः समाप्तः॥


पुंसवन संस्कार


[2]
अथ पुंसवनम्
‘पुंसवन’ संस्कार का समय गर्भस्थिति-ज्ञान हुए समय से दूसरे वा तीसरे महीने में है। उसी समय पुंसवन संस्कार करना चाहिये, जिससे पुरुषत्व अर्थात् वीर्य का लाभ होवे। यावत् बालक के जन्म हुए पश्चात् दो महीने न बीत जावें, तब तक पुरुष ब्रह्मचारी रहकर स्वप्न में भी वीर्य को नष्ट न होने देवे। भोजन-छादन शयन-जागरणादि व्यवहार उसी प्रकार से करे, जिस से वीर्य स्थिर रहे, और दूसरा सन्तान भी उत्तम होवे।
अत्र प्रमाणानि
पुमांसौ मित्रावरुणौ    पुमांसावश्विनावुभौ।
पुमानग्निश्च वायुश्च पुमान् गर्भस्तवोदरे स्वाहा॥1॥
पुमानग्निः पुमानिन्द्रः पुमान् देवो बृहस्पतिः।
पुमांसं पुत्रं विन्दस्व तं पुमाननु जायताम्॥2॥
—सामवेदे॥
शमीमश्वत्थ   आरूढस्तत्र पुंसवनं    वृतम्।
तद्वै पुत्रस्य वेदनं तत् स्त्रीष्वा भरामसि॥1॥
पुंसि वै रेतो भवति तत् स्त्रियामनु षिच्यते।
तद्वै पुत्रस्य वेदनं तत् प्रजापतिरब्रवीत्॥2॥
प्रजापतिरनुमतिः     सिनीवाल्यद्वचीक्लृपत्।
स्त्रैषूयमन्यत्र  दधत्  पुमांसमु      दधदिह॥3॥
—अथर्व॰ का॰ 6। सू॰ 11॥
इन मन्त्रों का यही अभिप्राय है कि पुरुष को वीर्यवान् होना चाहिये। इसमें आश्वलायन गृह्यसूत्र का प्रमाण—
अथास्यै मण्डलागारच्छायायां दक्षिणस्यां नासिकायामजीतामोषधीं नस्तः करोति॥1॥
प्रजावज्जीवपुत्राभ्यां हैके॥2॥
गर्भ के दूसरे वा तीसरे महीने में वटवृक्ष की जटा वा उसकी पत्ती लेके स्त्री के दक्षिण नासापुट से सुंघावे। और कुछ अन्य पुष्ट अर्थात् गुडूच जो गिलोय वा ब्राह्मी ओषधि खिलावे।
ऐसा ही पारस्कर गृह्यसूत्र का प्रमाण है—
अथ पुंसवनं पुरा स्यन्दत इति मासे द्वितीये तृतीये वा॥
इस के अनन्तर ‘पुंसवन’ उस को कहते हैं, जो पूर्व ऋतुदान देकर गर्भस्थिति से दूसरे वा तीसरे महीने में पुंसवन संस्कार किया जाता है।
इसी प्रकार गोभिलीय और शौनक गृह्यसूत्रों में भी लिखा है।
अथ क्रियारम्भ—पृष्ठ 4 से 11वें पृष्ठ के शान्तिकरण पर्यन्त कहे प्रमाणे (विश्वानि देव॰)इत्यादि चारों वेदों के मन्त्रों से यजमान और पुरोहितादि ईश्वरोपासना करें। और जितने पुरुष वहां उपस्थित हों, वे भी परमेश्वरोपासना में चित्त लगावें और पृष्ठ 7-9 में कहे प्रमाणे स्वस्तिवाचनतथा पृष्ठ 9-11 में लिखे प्रमाणे शान्तिकरणकरके, पृष्ठ 12 में लिखे प्रमाणे यज्ञदेश, यज्ञशाला तथा पृष्ठ 12-13 में लिखे प्रमाणे यज्ञकुण्ड, यज्ञसमिधा, होम के द्रव्य और स्थालीपाक आदि करके और पृष्ठ 18-20 में लिखे प्रमाणे (अयन्त इध्म॰) इत्यादि, (ओम् अदिते॰) इत्यादि 4 चार मन्त्रोक्त कर्म और आघारावाज्यभागाहुति 4 चार तथा व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 21 में (ओं प्रजापतये स्वाहा), पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे (ओं यदस्य कर्मणो॰) दो आहुति देकर नीचे लिखे हुए दोनों मन्त्रों से 2 दो आहुति घृत की देवें—
ओम् आ ते गर्भो योनिमेतु पुमान् बाण इवेषुधिम्।
आ    वीरो   जायतां पुत्रस्ते दशमास्यः    स्वाहा॥1॥
ओम् अग्निरैतु प्रथमो देवतानां सोऽस्यै प्रजां मुञ्चतु मृत्युपाशात्।
तदयं राजा वरुणोऽनुमन्यतां यथेयं स्त्री पौत्रमघं न रोदात्
स्वाहा॥2॥
इन दोनों मन्त्रों को बोलके दो आहुति किये पश्चात् एकान्त में  पत्नी के हृदय पर हाथ धरके यह निम्नलिखित मन्त्र पति बोले—
ओं यत्ते सुसीमे हृदये हितमन्तः प्रजापतौ।
मन्येऽहं मां तद्विद्वांसं माहं पौत्रमघं नियाम्॥
तत्पश्चात् पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे सामवेद आर्चिक और महावामदेव्यगान गाके जो-जो पुरुष वा स्त्री संस्कार-समय पर आये हों, उन को विदा कर दे।
पुनः वटवृक्ष के कोमल कूपल और गिलोय को महीन बांट, कपड़े में छान, गर्भिणी स्त्री के दक्षिण नासापुट में सुंघावे।
तत्पश्चात्—
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥2॥
—यजुः॰ अ॰ 13। मं॰ 4॥
अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तताग्रे।
तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥2॥
—यजुः॰अ॰ 31। मं॰ 17॥
इन 2 दो मन्त्रों को बोलके पति अपनी गर्भिणी पत्नी के गर्भाशय पर हाथ धरके यह मन्त्र बोले—
सुपर्णोऽसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो गायत्रं चक्षुर्बृहद्रथन्तरे पक्षौ।
स्तोमऽ आत्मा छन्दांस्यङ्गानि यजूंषि नाम।
साम ते तनूर्वामदेव्यं यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः।
सुपर्णोऽसि गरुत्मान् दिवं गच्छ स्वः पत॥
—यजुः॰ अ॰ 12। मं॰ 4॥
इस के पश्चात् स्त्री सुनियम युक्ताहार-विहार करे। विशेषकर गिलोय ब्राह्मी ओषधि और सुंठी को दूध के साथ थोड़ी-थोड़ी खाया करे और अधिक शयन और अधिक भाषण, अधिक खारा, खट्टा, तीखा, कड़वा, रेचक हरड़े आदि न खावे, सूक्ष्म आहार करे। क्रोध, द्वेष, लोभादि दोषों में न फंसे। चित्त को सदा प्रसन्न रखे—इत्यादि शुभाचरण करे॥

॥ इति पुंसवनसंस्कारविधिः समाप्तः॥


कर्णवेध संस्कार


[9]
अथ कर्णवेधसंस्कारविधिं वक्ष्यामः
अत्र प्रमाणम्—
कर्णवेधो वर्षे तृतीये पञ्चमे वा॥
—यह आश्वलायन गृह्यसूत्र का वचन है॥
बालक के कर्ण वा नासिका के वेध का समय जन्म से तीसरे वा पांचवें वर्ष का उचित है।
जो दिन कर्ण वा नासिका के वेध का ठहराया हो, उसी दिन बालक को प्रातःकाल शुद्ध जल से स्नान और वस्त्रालङ्कार धारण कराके बालक की माता यज्ञशाला में लावे। पृष्ठ 4-24 तक लिखा हुआ सब विधि करे और उस बालक के आगे कुछ खाने का पदार्थ वा खिलौना धरके—
ओं भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥
इस मन्त्र को पढ़के चरक सुश्रुत वैद्यक-ग्रन्थों के जाननेवाले सद्वैद्य के हाथ से कर्ण वा नासिका वेध करावें कि जो नाड़ी आदि को बचाके वेध कर सके। पूर्वोक्त मन्त्र से दक्षिण कान। और—
ओं वक्ष्यन्ती वेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियं सखायं परिषस्वजाना।
योषेव शिङ्क्ते वितताधि धन्वञ्ज्या इयं समने पारयन्ती॥
इस मन्त्र को पढ़के दूसरे वाम कर्ण का वेध करे। तत्पश्चात् वही वैद्य उन छिद्रों में शलाका रक्खे कि जिस से छिद्र पूर न जावें। और ऐसी ओषधि उस पर लगावे, जिस से कान पकें नहीं और शीघ्र अच्छे हो जावें॥

॥ इति कर्णवेधसंस्कारविधिः समाप्तः॥